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२८२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितआकाशगामिनी आदिऋद्धि जिनिकै पाइये तिनिकी ऋद्धि इनिङ प्राप्त भये ॥
भावार्थ-पूर्वै ऐसे निर्मल भावके धारक पुरुष भये ते ऐसी पदवीके सुखनिकू प्राप्त भये, अब ते ऐसे होंहिगे ते पायेंगे, ऐसें जाननां ॥१६१ ___आर्गे कहै है मुक्तिका सुख भी ऐसे ही पावे हैं;गाथा-सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तमंपरमविमलमतुलं ।
पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ॥१६२॥ संस्कृत-शिवमजरामरलिंग अनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम् ।
प्राप्तो वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः॥१६२ अर्थ-जे जिनभावनाकरि भावित सहित जीव हैं तेही सिद्धि कहि ये मोक्ष ताके सुखवू पाऐं हैं, कैसा है सिद्धिसुख-शिव है कल्याणरूप है काहू प्रकार उपद्रवसहित नाही है, बहुरि कैसा है-अजरामरलिंग है वृद्ध होनां अर मरनां इनि दोऊनिरहित है लिंग कहिये चिह्न जाका बहुरि कैसा है अनुपम है जाकै संसारीक सुखकी उपमा लागै नाही, बहुरि कैसा है उत्तम कहिये सर्वोत्तम है बहुरि परम कहिये सर्वोत्कृष्ट है, बहुरि कैसा है-महार्य है महान् अर्घ्य पूज्य प्रशंसायोग्य है, बहुरि कैसा है विमल है कर्मके मल तथा रागादिकमलकरि रहित है, बहुरि कैसा है अतुल है याकी बराबर संसारीक सुख नाही; ऐसा सुख• जिनभक्त पावै है अन्यका भक्त न पावै है ॥१६२ ॥
आगें आचार्य प्रार्थना करे हे जो ऐसे सिद्धिमुखकुं प्राप्त भये सिद्ध भगवान ते मोकू भाषकी शुद्धताकू द्यो; गाथा ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिचा ।
दिंतु बरभावसुद्धिं देसण णाणे चरित्ते य ॥१६३॥