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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २८१ गाथा-गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमाणदो।
तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे ॥१६०॥ संस्कृत-गुणगणमणिमालया जिनमतगगने निशाकरमुनींद्रः।
तारावलीपरिकरितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथे ॥१६०॥ अर्थ—जैसैं पवनपथ जो आकाश तावि तारानिकी पंक्तिकरि परिपारौं वेष्टित पूर्णमासीका चंद्रमा सोभै है तैसैं जिनमतरूप आकाशविर्षे गुणनिके समूह सो ही भई मणिनिकी माला ताकरि मुनीन्द्ररूप चंद्रमा सोभै है।
भावार्थ-अट्ठाईस मूलगुण दशलक्षण धर्म तीन गुप्ति चौरासीलाख उत्तरगुण इत्यादि गुणनिकी मालाकार सहित मुनि है सो जिनमतमैं चंद्रमावत् सोभै है ऐसे मुनि अन्यमतमैं नाही ॥ १६० ॥ __ आनें कहै है जो ऐसैं जिनकै विशुद्ध भाव हैं ते सत्पुरुष तीर्थंकर आदिक पदका सुखनिकू पाबैं हैं;गाथा-चक्कहररामकेसवसुरवरजिणगणहराइसोक्खाई ।
चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्धभावा णरा पत्ता ॥१६१॥ संस्कृत-चक्रधररामकेशवसुरवरजिनगणधरादिसौख्यानि ।
चारणमुन्यीः विशुद्धभावा नराः प्राप्ताः ॥१६१ ॥ अर्थ-विशुद्ध हैं भाव जिनिके ऐसे नर मुनि हैं ते चक्रधर कहिये चक्रवर्ती षट् खंडका राजेन्द्र, राम कहिये बलभद्र, केशव कहिये नारायण अर्द्धचक्री, सुरवर कहिये देवनिका इंद्र, जिन कहिये तीर्थकर पंच कल्याण करि सहित तीन लोककरि पूज्य पदवी, गणधर कहिये च्यार ज्ञानं सप्तऋद्धिके धारक मुनि, इनिके सुखनिकू; बहुरि चारणमुनि कहिये