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________________ २६६ पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित आगैं इसही अर्थकू दृढ़ करते संते ऐसैं कहै है जो ऐसें मिथ्यात्वकरि मोह्या जीव संसारमैं भ्रम्या;गाथा-इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो । . भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ॥१४१॥ संस्कृत-इति मिथ्यात्वावासे कुनयकुशास्त्रैः मोहितः जीवः । . भ्रमितः अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय ॥१४१।। __ अर्थ-इति कहिये पूर्वोक्त प्रकार मिथ्यात्वका आवास ठिकाणां जो यह मिथ्यादृष्टीनिका संसार ताविर्षे कुनय जो सर्वथा एकान्त तिनिसहित जे कुशास्त्र तिनिकरि मोह्या बेचेत भया जो यह जीव सो अनादिकालतें लगाय संसारविर्षे भ्रम्या, ऐसे हे धीर ! मुने ! तू विचारि ॥ भावार्थ-आचार्य कहे है जो पूर्वोक्त तीनसो तरेसठि कुवादिनिकरि सर्वथा एकांतपक्षरूप कुनयकरि रचे शास्त्र तिनिकरि मोहित भया यह जीव संसारविर्षे अनादित भ्रमै है, सो हे धीरमुनि ! अब ऐसे कुवादिनिकी संगतिभी मति करै, यह उपदेश है ॥ १४१ ॥ ___ आगें कहै है जो पूर्वोक्त तीनसौ तरेसठि पापडीनिका मार्ग छोड़ि जिनमार्गविौं मन लगावो;गाथा--पासंडी तिणि सया तिसहिभेया उमग्ग मुत्तूण । रंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा ॥१४२॥ संस्कृत-पाषण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्टिभेदाः उन्मार्ग मुक्त्वा। रुन्द्धि मनः जिनमार्गे असत्प्रलापेन किंबहुना १४२ अर्थ—हे जीव ! तीनसौ तरेसठि पाषंडी कहे तिनिका मार्ग• छोड़ि अर जिनमार्गविर्षे अपने मनकू थामि यह संक्षेप है, और निरर्थक प्रलापरूप कहनेंकरि कहा ? ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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