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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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अर्थ-मिथ्यात्व तथा कषाय अर असंयम अर योग ते कैसे, अशुभ है लेश्या जिनिमैं ऐसे भावनि करि तौ यह जीव अशुभ कर्मकू बांधै है, कैसा जीव अशुभ कर्मकू बांधै है-जिनवचन" पराङमुख है सो पाप बाँधै
भावार्थ-मिथ्यात्व भाव तौ तत्वार्थका श्रद्धानरहित परिणाम है, बहुरि कषाय क्रोधादिक हैं, अर असंयम परद्रव्यके ग्रहणरूप है त्यागरूप भाव नाही, ऐसे इंद्रियनिके विषयनितें प्रीति जीवनिकी विराधनासहित भाव है, योग मनवचनकायके निमित्त आत्मप्रदेशका चलनां है । ये भाव हैं ते जब तीव्रकषायसहित कृष्णनील कापोत अशुभ लेश्यारूप होय तब या जीवकै पापकर्मका बंध होय है। तहां पापबंध करनेवाला जीव कैसा है-ताकै जिनवचनकी श्रद्धा नाही, इस विशेषणका आशय यह जो अन्य मतके श्रद्धानीकै जो कदाचित् शुभलेश्याके निमित्त” पुण्यकाभी बंध होय तौ ताकू पापहीमैं गिणिये, अर जो जिन आज्ञामैं प्रवर्ते है ताकै कदाचित् पापभी बंधै तो वह पुण्यजीवनिकी ही पंक्तिमैं गिणिये है, मिथ्यादृष्टीकू पापजीवनिमैं गिण्या है सम्यग्दृष्टीकू पुण्यजीवनिमैं गिण्या है। ऐसैं पापबंधके कारण कहे ॥ ११७ ॥
आण यातें उलटा जीव है सो पुण्य बांधै है, ऐसैं कहै है;गाथा--तविवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो ।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव बजरियं ॥११८॥ संस्कृत--तद्विपरीतः बध्नाति शुभकर्म भावशुद्धिमापनः ।
द्विविधप्रकारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितम् ॥११८॥ अर्थ-तिस पूर्वोक्त जिनवचनका श्रद्धानी मिथ्यात्वरहित सम्यग्दृष्टी जीव है सो शुभकर्मकू बांधै है कैसा है जीव भावनिकी जो..