________________
२४४
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
चेतनाभाव अर ऐसाही अरहंत सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप ताका चितवनां जेरौं या आत्माकै नांही ते संसारनै निवृत्त होनां नाही, ताः तत्वकी भावना अर शुद्धस्वरूपका ध्यानका उपाय निरन्तर राखणां यह उपदेश है ॥ ११५ ॥ __ आगें कहै है जो-पाप पुण्यका अर बंध मोक्षका कारण परिणाम ही है,गाथा-पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा।
परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिहो ॥११६॥ संस्कृत-पापं भवति अशेष पुण्यमशेषं च भवति परिणामात् ।
परिणामाद्धंधः मोक्षः जिनशासने दृष्टः ॥ ११६ ॥ __ अर्थ--पाप पुण्य बंध मोक्षका कारण परिणामही कह्या तहां जीवके मिथ्यात्व विषय कषाय अशुभलेश्यारूप तीव्र परिणाम होय तिनि” तौ पापास्रवका बंध होय है, बहुरि परमेष्ठीकी भक्ति जीवनिकी दया इत्यादिक मंदकषाय शुभलेश्यारूप परिणाम होय ता” पुण्यास्रवका बंध होय है, अर शुद्ध परिणाम रहित विभावरूप परिणामतें बंध होय है। तहां शुद्ध भावकै सन्मुख रहनां ताके अनुकूल शुभ परिणाम राखने अशुभ परिणाम सर्वथा भेटनां, यह उपदेश है ॥ ११६ ॥
आगैं पुण्य पापका बंध जैसे भावनिकरि होय तिनिकू कहै है, तहां प्रथमही पापबंधके परिणाम कहै है;-- गाथा--मिच्छत्त तह कसायाऽसंजमजोगेहिं असुहलेसेहिं ।
बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्भुहो जीवो॥११७॥ संस्कृत--मिथ्यात्वं तथा कषायासंयमयोगैः अशुभलेश्यैः ।
बध्नाति अशुभं कर्म जिनवचनपराड्यखः जीवः ११७