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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ! २१७ संस्कृत-द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन । धर मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिप्रवर ! ॥ ८० ॥ ___ अर्थ-हे मुनिप्रवर ! मुनिनिमैं श्रेष्ठ ! तू बारह प्रकार तप चर अर तेरह प्रकार क्रिया मन वच कायकरि भाय, अर ज्ञानरूप अंकुशकरि मनरूप माते हाथीकू धारि अपनें वशमैं राखि ॥ भावार्थ--यह मनरूप हस्ती मदोन्मत्त बहुत है सो तपश्चरण क्रियादिकसहित ज्ञानरूप अंकुशही” वशि होय है तातें यह उपदेश है जो तपश्चरण क्रियादिकसहित ज्ञानरूप अंकुशही वशिहोय है और प्रकार नाही । इहां बारह तपके नामः--अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्या, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ये तो छहप्रकार बाह्यतप हैं; बहुरि प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ये छह प्रकार अम्यंतर तप हैं; इनिका स्वरूप तत्वार्थसूत्रकी टीकातें जाननां । बहुरि तेरह क्रिया ऐसैं;--पंच परमेष्ठीकू नमस्कार ये पांच क्रिया; छह आवश्यकक्रिया निषिधिकाक्रिया, आसिकाक्रिया । ऐसें भाव शुद्ध होनेके कारण कहे ॥ ८० ॥ आर्गे द्रव्यभावरूप सामान्यकरि जिनलिंगका स्वरूप कहै हैं;-- गाथा-पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू । भावं भाविय पुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ॥८॥ संस्कृत-पंचविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविधसंयमं भिक्षुः । भावं भावयित्वा पूर्व जिनलिंगं निर्मलं शुद्धम्।।८१॥ अर्थ-निर्मल शुद्ध जिनलिंग ऐसा है-जहां पंचप्रकार वस्त्रका त्याग है, बहुरि जहां भूमिविर्षे शयन है, बहुरि जहां दोय प्रकार संयम है, बहुरि जहां भिक्षाभोजन है, बहुरि भावितपूर्व कहिये पहलें शुद्ध आत्माका
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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