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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडको भाषावचनिका । २०९ आपकू ज्ञानस्वरूप जांनि अनुभव करै तब भाव जानिये है; ता” बार बार भावनाकरि भाव लगायेही सिद्धि है ॥ ६६ ॥ ___ आनें कहै है जो-बाह्य नग्नपणाही करि ही सिद्धि होय तौ नग्न तौ सारेही होय हैं;गाथा-दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंधाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ॥६७॥ संस्कृत-द्रव्येण सकला नग्नाः नारकतिर्यचश्च सकलसंघाताः। परिणामेन अशुद्धाः न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः॥६७॥ __ अर्थ-द्रव्यकरि बाह्य तौ सकल प्राणी नागा होय हैं नारकी जीव अर तिर्यंच जीव तौ निरन्तर वस्त्रादिककरि रहित नागाही रहैं हैं, बहुरि सकलसंघात कहनेंतें अन्य मनुष्य आदिक भी कारण पाय नग्न होय हैं तौऊ परिणामकरि अशुद्ध हैं तातै भावश्रमणपणांकू प्राप्त नाही भये ॥ ___ भावार्थ-जो नग्न रहे ही मुनिलिंग होय तौ नारकी तिर्यंच आदि सकल जीवसमूह नग्न रहैं हैं ते सर्वही मुनि ठहरै तातें मुनिपणां तौ भाव शुद्ध भयेही होय है, अशुद्ध भाव होय ते” द्रव्यकरि नग्न भी होय तौ भावमुनिपणां न पावै है ॥ ६७ ॥ आण याही अर्थकू दृढ करनेंकू केवल नग्नपणां निष्फल दिखावै है;गाथा-णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमई । णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवजिओ सुइरं॥६८॥ संस्कृत-नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमति । ननः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः सुचिरं ६८ अर्थ-नग्न है सो सदा दुःख पावै है, बहुरि नग्न है सो सदा संसारसमुद्रमैं भ्रमै है, बहुरि नग्न है सो बोधि कहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान अ. व. १४
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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