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________________ २०८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित अर्थ-हे भव्यजन ! तू यह ज्ञान पांच प्रकार भाय, कैसा है यह ज्ञान-अज्ञानका नाशकरनेवाला है, कैसा भया भाय भावनाकरि भावित जो भाव तिससहित भाय, बहुरि कैसा भया शीघ्र भाय, यातें तू दिव कहिये स्वर्ग शिव कहिये मोक्ष ताका भाजन होय । ___ भावार्थ-यद्यपि ज्ञान जाननस्वभावकरि एक प्रकार है तोऊ कर्मके क्षयोपशम क्षयकी अपेक्षा पंच प्रकार भया है तामैं मिथ्यात्वभावकी अपेक्षाकरि मतिश्रुत अवधि ये तीन मिथ्याज्ञानभी कहाये हैं, ता” मिथ्याज्ञानका अभाव करनेंकू मति श्रुत अवधि मनःपर्यय केवल ज्ञानस्वरूप पंच प्रकार सम्यग्ज्ञान जांनि तिनिकू भावनां, परमार्थ विचार से ज्ञान एकही प्रकार है, यह ज्ञानकी भावना स्वर्गमोक्षकी दाता है ॥ ६५ ॥ ___ आगें कहै है जो—पढनां सुननांभी भावविना कळू है नाही;गाथा--पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण। भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ॥६६॥ संस्कृत--पठितेनापि किं क्रियते किं वा श्रुतेन भावरहितेन । . भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम् ॥६६॥ अर्थ-भावरहित पढनां सुननां तिनिकरि कहा कीजिये कभी कार्यकारी नाही है तातें श्रावकपणां तथा मुनिपणां इनिका कारणभूत भावही है । भावार्थ-मोक्षमार्गमैं एकदेश सर्वदेश व्रतनिकी प्रवृत्तिरूप मुनिश्रावकपणां है सो दोऊका कारणभूत निश्चय सम्यग्दर्शनादिक भाव हैं, तहां भावविना व्रतक्रियाकी कथनी कळू कार्यकारि नाही है, तातैं ऐसा उपदेश है जो भावविना पढनां सुननां आदिकरि कहा कीजिये, केवल खेदमात्र है, तातै भावसहित कछू करो सो सफल है । इहां ऐसा आशय है जो कोऊ जानेगा पढ़नां सुननांही ज्ञान है सो ऐसैं नांही है, पढ़ि सुनिकरि
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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