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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १८५ संस्कृत - कालमनंतं जीवः जन्मजरामरणपीडितः दुःखम् । जिनलिंगेन अपि प्राप्तः परम्पराभावरहितेन ॥ ३४ ॥ अर्थ — यह जीव या संसारविषै जामैं परंपरा भावलिंग न भया संता अनंतकालपर्यन्त जन्म जरा मरणकरि पीडित दुःखही कूं प्राप्त भया || भावार्थ —— द्रव्यलिंग धाऱ्या अर तामैं परंपराकरि भी भावलिंगकी प्राप्ति न भई यातै द्रव्यलिंग निष्फल गया मुक्तिकी प्राप्ति नभई संसारहीमैं भ्रम्या । इहां आशय ऐसा जो द्रव्यलिंग है सो भावलिंगका साधन है परन्तु काललब्धिविनां द्रव्यलिंग धारेभी भावलिंग की प्राप्ति न होय यातैं द्रव्यलिंग निष्फल जाय है ऐसें मोक्षमार्ग प्रधानकरि भावलिंगही है । इहां कोई है है ऐसे है तौ द्रव्यलिंग पहले काहेकूं धारणां ? ताकूं कहिये ऐसैं मानेंतौ व्यवहारका लोप होय है तातैं ऐसैं, माननां जो द्रव्यलिंग पहले धारनां, ऐसा न जानना जो याहीतैं सिद्धि है भावलिंगकूं प्रधान मानि तिसकै सन्मुख उपयोग राखनां द्रव्यलिंगकूं यत्नतैं साधना ऐसा श्रद्धान भला है ॥ ३४ ॥ आगैं पुद्गल द्रव्यकूं प्रधानकरि भ्रमण कहै है ;गाथा - पडिदेससमययुग्गल आउगपरिणामणामकालडं । गहिउज्झियाई बहुसो अनंतभवसायरे जीवो ।। ३५॥ संस्कृत - प्रतिदेशसमय पुद्गलायुः परिणामनामकालस्थम् । गृहीतोज्झितानि बहुशः अनंतभवसागरे जीवः ॥ ३५ ॥ अर्थ — इस जीवनैं या अनंत अपार भवसमुद्रविषै लौकाकाशके जेते प्रदेश हैं तिनि प्रति समय समय अर पर्यायके आयुप्रमाण काल अर अपने जैसा योगकषायके परिणमन स्वरूप परिणाम अर जैसा गतिजाति
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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