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________________ १८४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिततहां दर्शन ज्ञान चारित्रका अतिशयकरि सहित होय सो तो पंडितपंडित है, अर इनिकी प्रकर्षता जाकै न होय सो पंडित है, सम्यग्दृष्टी श्रावण सो बाल पंडित, अर पूर्वै च्यार प्रकार पंडित कहे तिनिमैं सूं एकभी भाव जाकै नांही सो बाल है, अर जो सर्वतै न्यून होय सो वालवाल है । इनिमैं पंडितपंडितमरण अर पंडितमरण अर वालपंडितमरण ये तीन प्रशस्त सुमरण कहै हैं अन्यरीति होय सो कुमरण है । ऐसें जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र एकदेशसहित मरै सो सुमरण है, ऐसा सुमरण करनेका उपदेश है ॥ ३३॥ आगें यह जीव संसारमैं भ्रमैं है तिस भ्रमणके परावर्तनका स्वरूप मनमैं धारि निरूपण करै है, तहां प्रथमही सामान्यकरि लोकके प्रदेशनिकी अपेक्षाकरि कहै है;गाथा-सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ। जत्थ ण जाओणमओ तियलोयपमाणिओ सव्वो॥३३॥ संस्कृत-सः नास्ति द्रव्यश्रमणः परमाणुप्रमाणमात्रो निलयः। यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः ॥३३॥ अर्थ-यह जीव द्रव्यलिंगका धारक मुनिपणां हो” संरौं भी यहु तीन लोक प्रमाण सर्व स्थानक हैं तामैं एक परमाणुपरिमाण एक प्रदेशमात्रभी ऐसा स्थान नाही जामैं जनम्यां नाही तथा मूवा नाही ॥ ___ भावार्थ-द्रव्यलिंग धारकरिभी सर्वलोकमैं यहजीव जनम्या मऱ्या ऐसा प्रदेश न रह्या जामैं जनम्या मन्य नाही, ऐसा भावलिंगविना द्रव्यलिंग” मुक्तिप्राप्त न भया ऐसा जाननां ॥ ३३ ॥ ' आण याही अर्थकू दृढ़ करनेंकू भावालेंगफू प्रधानकरि कहै है, गाथा--कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं । जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण ॥३४॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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