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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। १७१ गाथा--पासत्थभावणाओ अणइकालं अणेयवाराओ।
भाऊण दुहं पत्तो कुभावणा भाववीएहिं ॥ १४ ॥ संस्कृत--पार्श्वस्थभावनाः अनादिकालं अनेकवारान् ।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावनाभाबीजैः ॥१४॥ अर्थ-हे जीव ! तू पार्श्वस्थ भावनातै अनादिकालतें लेकरि अनंतवार भाय करि दुःखकू प्राप्त भया, काहे कारे दुःख पाया-कुभावना कहिये खोटी भावना ताका भाव ते ही भये दुःखके बीज तिनिकरि दुःख पाया ॥ ___भावार्थ-जो मुनि कहावै अर वस्तिका बांधि आजीविका करै सो पार्श्वस्थ भेषधारी कहिये, बहुरि जो कषायी होय व्रतादिकतै भ्रष्ट रहै संघका अविनय करै ऐसा भेषधारीकू कुशील कहिये, बहुरि जो वैद्यक ज्योतिष विद्यामंत्रकी आजीविका करै राजादिकका सेवक होय ऐसा भेषधारीकू संसक्त कहिये, बहुरि जो जिनसूत्रनै प्रतिकूल चारित्रतें भ्रष्ट आलसी ऐसा भेषधारीकू अवसन्न कहिये, बहुरि गुरुका आश्रय छोड़ि एकाकी स्वच्छन्द प्रवत्र्ते जिन आज्ञा लोपै ऐसा भेषधारीकू मृगचारी कहिये, इनिकी भावना भावै सो दुःखहीकू प्राप्त होय है ॥ १४ ॥ __ऐसे देव होय करि मानसिक दुःख पाये ऐसैं कहै है;गाथा-देवाण गुण विहूई इड्डी माहप्प बहुविहं दटुं ।
होऊण हीणदेवो पत्तो बहुमागसं दुक्खं ॥ १५ ॥ संस्कृत-देवानां गुणान् विभूतीःऋद्धीः माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा
भूत्वा हीनदेवः प्राप्तः बहु मानसं दुःखम् ॥१५॥ ___ अर्थ हे जीव ! तू हीनदेव होय करि अन्य महर्दिक देवनिकी गुण विभूति ऋद्धिका माहात्म्य बहुत प्रकार देखिकरि बहुत मानसिक दुःखकू प्राप्त भया ।