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________________ १७० पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित संबंधी दुःख तथा इंदाद्रिक बडे ऋद्रिधारीनिकू देखि आपकू हीन मानना ऐसा मानसिक दुःख ऐसे तीव्र दुःख शुभ भावनांकरि रहित भये संते पाया ॥ ___ भावार्थ-इहां महाजस ऐसा संवोधन किया ताका आशय यह है जो मुनि निर्ग्रन्थ लिंग धारै अर द्रव्यलिंग मुनिर्क समस्त क्रिया करै परन्तु आत्माका स्वरूप शुद्धोपयोगकै सन्मुख न होय ताकू प्रधानपण उपदेश है-जो मुनि भया सो तौ बडा कार्य किया तेरा जस लोकमैं प्रसिद्ध भया परन्तु भलीभावना जो शुद्धात्मतत्त्वका अभ्यास ताविना तपश्चरणादिककरि स्वर्गवि देवभी भया तो वहां भी विषयनिका लोभी भया संता मानसिक दुःखही तप्तायमान भया ॥ २ ॥ ___ आणु शुभभावनांते रहित अशुभ भावनाका निरूपण करै है;गाथा-कंदप्पमाझ्याओ पंच वि असुहादिभवणाई य । भाऊण दवलिंगी पहीगदेवो दिवे जाओ ॥१३॥ संस्कृत-कांदीत्यादीः पंचापि अशुभादिभावनाः च । भावयित्वा द्रव्यलिंगी ग्रहीणदेवः दिवि जातः॥१३॥ अर्थ—हे जीव ! तू द्रव्यलिंगी मुनि होय करि कान्दीकू आदि लेकरि पांच अशुभ शब्द हैं आदि जिनकै ऐसी अशुभ भावना भायकरि प्रहिणदेव कहिये नीचदेव स्वर्गविर्षे उपज्या ॥ ___ भावार्थ-कान्दपी, किल्लिषिकी, संमोही, दानवी, आभियोगिकी, ये पांच अशुभ भावना हैं तहां निर्ग्रन्थ मुनि होय करि सम्यक्त्व भावना विना इनि अशुभ भावनांकू भावै तब किल्विष आदि नीच देव होय मानसिक दुःखकू प्राप्त होय है ॥ १३ ॥ आरौं द्रव्यलिंगी पार्श्वस्थ आदि होय हैं तिनिळू कहै है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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