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________________ १५८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितमुद्रा आदि धातु पाषाणादिककाभी व्यवहार तैसाही जानि श्रद्धान करना अर प्रवृत्ति करनी । अन्यमती अनेक प्रकार स्वरूप बिगाडि प्रवृत्ति करें हैं तिनि• बुद्धिकल्पित जानि उपासना न करनी । इस द्रव्य व्यवहारका प्ररूपण प्रव्रज्याके स्थलमैं आदितें दूसरी गाथामैं बिंबचैत्यालयत्रिक अर जिनभवन ये भी मुनिनिके ध्यावने योग्य हैं ऐसैं कह्या है सो जे गृहस्थ इनिकी प्रवृत्ति करैं हैं तब ते मुनिनिकै ध्यावने योग्य होय हैं तातें जिनमन्दिर प्रतिमा पूजा प्रतिष्ठा आदिकके सर्वथा निषेध करनेवाले सर्वथा एकान्तीकी ज्यौं मिथ्यादृष्टि हैं, तिनिकी संगति न करनी ॥ ___ आगें आचार्य इस बोधपाहुडका कहनां अपनी बुद्धिकल्पित नाहीं है पूर्वाचार्यानिके अनुसार कह्या है ऐसैं कहै हैं। गाथा--सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भदबाहुस्स ॥६१॥ संस्कृत-शब्दविकारो भूतः भाषासूत्रेषु यजिनेन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः॥६१॥ अर्थ- शब्दका विकार उपज्या ऐसा अक्षररूप परिणया भाषासूत्रनिविर्षे जिनदेवनैं कह्या सोही श्रवणमैं अक्षररूप आया बहुरि जैसा जिनदेव कह्या तैसा परंपराकरि भद्रबाहुनाम पंचम श्रतकेवलीनै जान्यां अपने शिष्य विशाखाचार्य आदिकू कह्या सो तिनि जान्यां सोही अर्थरूप विशाखाचार्यकी परंपरायतै चल्या आया सोही अर्थ आचार्य कहै है हमनैं कह्या है सो हमारी बुद्धिकरि कल्पित न कह्या है; ऐसा अभिप्राय है ॥ ६१ ॥ आण भद्रबाहु स्वामीकी स्तुतिरूप वचन कहै है१ गाथार में बिंबकी जगह 'वच ' ऐसा पाठ है ।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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