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________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १५७ जहां तुम्हारे परिणामकी तो ऐसी जाति नाही, केवल बाह्य क्रिया मात्रमैं ही पुण्य समझौ हौ बाह्य बहु आरंभी परिग्रहीका मन सामायिक प्रतिक्रमण आदि निरारंभ कार्यनि. विशेष लागै नांही है यह अनुभव गोचर है, सो तेरै अपने भावनिका अनुभव नाही केवल बाह्य सामायिकादि निरारंभ कार्यका भेषधारि बैठेतौ कि विशिष्ट पुण्य है नांही शरीरादिक बाह्य वस्तु तौ जड है केवल जडकी फिया फल तौ आत्माकू लागै नांही अर अपने भाव जेता अंसा बाह्य क्रियामैं लागै तेता अंसा शुभाशुभ फल आपकू लागै है, ऐसे विशिष्ट पुण्य तौ भावनिकै अनुसार है, बहुरि आरंभी परिग्रहीका भाव तौ पूजा प्रतिष्ठादिक बड़े आरंभ ही विशेष अनुराग सहित लागै है, अर जो गृहस्थाचारके बड़े आरंभ" विरक्त होगा सो त्याग करि अपनी पदवी बधावैगा तब गृहस्थाचारके बड़े आरंभ छोडैगा तब ताही रीति बडे आरंभ धर्म प्रवृत्तिकेभी पदवीकी रीति घटावैगा मुनि होगा तब सर्वही आरंभ काहेवू करैगा, ताक् मिथ्यादृष्टि बाह्यबुद्धि जे बाह्य कार्यमात्रही पुण्य पाप मोक्षमार्ग समझै है तिनिका उपदेश सुनि आपकू अज्ञानी न होना, पुण्य पापका बंधमैं शुभाशुभ भावही प्रधान हैं अर पुण्य पाप रहित मोक्षमार्ग है तामैं सम्यग्दर्शनादिकरूप आत्म परिणाम प्रधान हैं अर धर्मानुराग है सो मोक्षमार्गका सहकारी है अर धर्मानुरागके तीव्र मंदके भेद बहुत हैं तातैं अपनें भावनिकू यथार्थ पहचानि अपनी पदवी सामर्थ्य पहचानि समझिकरि श्रद्धानज्ञान प्रवृत्ति करनी अपनां भला बुरा अपने भावनिकै आधीन है बाह्य परद्रव्य तौ निमित्त मात्र है, उपादान कारण होय तो निमित्तभी सहकारी होय अर उपादान न होय तो निमित्त कळूभी न करै है, ऐसे इस बोधपाहुडका आशय जाननां । याकू नीकै समझि आयतनादिक जैसैं कहे तैसैं अर इनिका व्यवहारभी बाध तैसाही अर चैत्यगृह प्रतिमा जिनबिंब जिन
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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