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________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १४१ कछु वैराग्यका कारण पाय संसार देह भोगते विरक्त होय, तब लौकांतिक देव आय वैराग्यकी वधावन हारी प्रभुकी स्तुति करें, पी, इन्द्र आय तपकल्याणक करै पालकीमैं बैठाय बड़े बड़े उत्सव” वनमैं लेजाय, तहां प्रभु पवित्र शिलापरि बैठि पंचमुष्टीनैं लौंचकरि पंच महाव्रत अंगीकार करै समस्त परिग्रहका त्यागकरि दिगंबररूप धारि ध्यान करै, तत्काल मनःपर्ययज्ञान उपजै, पाछै केतक काल वीते तपके बलकरि घातिकमकी प्रकृति ४७अधाति कर्मप्रकृति १६ ऐसें तरेसठि प्रकृतिका संत्तामैंसूं नाशकरि केवलज्ञान उपजाय अनंतचतुष्टय पाय क्षुधादिक अठारह दोषनि” रहित होय अरहंत होय, तब इन्द्र आय समवसरण रचैं सो आगमोक्त अनेक शोभा सहित मणिसुवर्णमयी कोट खाई वेदी च्यारूं दिशा च्यार दरवाजा मानस्तंभ नाट्यशाला वन आदि अनेक रचना कर, ताके मध्य सभामंडपमैं बारह सभा, तिनिमैं मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका देव देवी तिर्यच तिष्ठें, प्रभुके अनेक अतिशय प्रगट होय, सभामंडपके वीचि तीन पीठ परि गंधकुटीकै वीचि सिंहासनपरि व कमलासन अंतरीक्ष प्रभु विराजे अर अष्ट प्रातिहार्ययुक्त होय वाणी खिरै ताकू सुनि गणधर द्वादशांग शास्त्र रचें, ऐसे केवलकल्याणकका उत्सव इन्द्र करै है पीछे प्रभु विहार करै ताका बडा उत्सव देव करें, पाछै केतेक कालपीछे आयुके दिन थोरे रहैं तब योगनिरोध करि अधातिकर्मका नाशकरि मुक्ति पधारें, तब पीछे शरीरका संस्कार इन्द्र उत्सवसहित निर्वाण कल्याण करै । ऐसैं तीर्थंकर पंच कल्याणककी पूजा पाय अरहंत कहाय निर्वाण प्राप्त होय है ऐसें जाननां ॥ ___ आरौं प्रव्रज्याका निरूपण करै है ताकू दीक्षा कहिये ताकू प्रथमही दीक्षाके योग्य स्थानकविशेषकू तथा दीक्षासहित मुनि जहां तिष्टै ताका. स्वरूप कहै है,
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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