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११० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
जे नर सरधावान याहि धारै विधिसेती।
निश्चय अर व्यवहार रीति आगममैं जेती ॥ जव जगधंधा सब मेटिकैं निजस्वरूपमैं थिर रहै ।
तब अष्टकर्म• नाशिकै अविनाशी शिवकू लहै ॥१॥ ऐसें सम्यत्क्वचरणचारित्र अर संयमचरण
चारित्र ऐसे दोय प्रकार चारित्रका स्वरूप इस प्राभृतविर्षे कह्या।
दोहा। जिनभाषित चारित्रकू जे पालैं मुनिराय । तिनिके चरण नमूं सदा पाऊं तिनि गुणसाज ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दचार्यस्वामि विरचित
चारित्रप्राभृतकीपं० जयचन्द्रछावड़ाकृत देशभाषामय
वचनिका समाप्त ॥३॥