SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । ९७ ऐसे स्थूल पाप राजादिकके भयतें न करे सो व्रत नाही इनिकू तीव्रकषायके निमित्त तीव्रकर्मबंधके निमित्त जांनि स्वयमेव न करनेके भावरूप त्याग होय सो व्रत है। तथा याके ग्यारह स्थानक कहे तिनिमैं ऊपरि ऊपरि त्याग वधता जाय है सो याकी उत्कृष्टता ताई ऐसा है जो जिनि कार्यनिमैं त्रस जीवनिकू बाधा होय ऐसे सर्वही कार्य टि जाय हैं तातें सामान्य ऐसा नाम कह्या है जो त्रसहिंसाका त्यागी देशव्रती होय है। याका विशेष कथन अन्य ग्रंथनितें जाननां ॥ २४ ॥ आगें तीन गुणव्रतानकू कहै है;गाथा दिसिविदिसिमाण पढमं अणत्थदंडस्स वजणं विदियं । भोगोपभागपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥२५॥ संस्कृत-दिग्विदिग्मानं प्रथमं अनर्थदंडस्य वर्जनं द्वितीयम् । भोगोपभोगपरिमाणं इमान्येव गुणव्रतानि त्रीणि॥२५॥ __ अर्थ-दिशा विदिशाविषै गमनका परिमाण सो प्रथम गुणव्रत है बहुरि अनर्थदंडका वर्जनां सो द्वितीय गुणव्रत है बहुरि भोग उपभोगका परिमाण सो तीसरा गुणव्रत है ऐसैं ये तीन गुणव्रत हैं । __ भावार्थ-इहां गुण शब्द तौ उपकारका वाचक है ये अणुव्रतनिळू उपकार करें हैं। बहुरि दिशा विदिशा कहिये पूर्वदिशा आदिकहैं तिनिविषै गमन करनेकी मर्याद करै। बहुरि अनर्थदंड कहिये जिनि कार्यनिमैं अपना प्रयोजन न सधै ऐसे जे पापकार्य तिनिकू न करै । इहां कोई पूछ-प्रयोजन विना तौ कोईभी जीव कार्य न करै है सो कि प्रयोजन विचार ही करै है अनर्थदंड कहा ?। ताका समाधान-सम्यग्दृष्टी श्रावक होय सो प्रयोजन अपने पद योग्य विचारै है, पद सिवाय सो अनर्थ, अर पापी पुरुषनिकै तौ सर्व ही पाप प्रयोजन हैं तिनिकी कहा अ० व० ७
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy