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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
येह जेतें है तेतैं ताकी निर्जरा करे हे ऐसैं अनुक्रमतें दुःख क्षय होय है । संयमाचरण भये सर्व दुःखका क्षय होय ही गा, इहां सम्यक्त्वका माहात्म्य ऐसा है सो सम्यक्त्वाचरण भये संयमाचरण भी शीघ्र ही होय है, यातें सम्यक्त्वकूं मोक्षमार्गमैं प्रधान जानि याहीका वर्णन पहले किया है ॥२०॥ आगैं संयमाचरण चारित्रकूं कहै है ;
गाथा - दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं ।
सायारं सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं ॥ २१ ॥ संस्कृत - द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारं । सागारं सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते खलु निरागारम् ॥ २१ ॥
अर्थ ——संयमचरण चारित्र है सो दोय प्रकार है सागार तथा निरागार ऐसैं, तहां सागारतौ परिग्रहसहित श्रावक होय है बहुरि निरागार परिग्रहतैं रहित मुनिकैं होय है यह निश्चय है ॥ २१ ॥ आगे सागार संयमाचरणं कहै है,
गाथा - दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । भारंभ परिग्गह अणुमण उद्दि देसविरदो य ॥ २२ ॥ संस्कृत - दर्शनं व्रतं सामायिकं प्रोषधं सचितं रात्रिभुक्तिश्च । ब्रह्म आरंभः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्ट देशविरतश्च ॥
अर्थ — दर्शन, व्रत, सामायिक; अर प्रोषघ आदिका नामका एक देश है अर नाम ऐसैं कहनां प्रोषधउपवास सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग उद्दिष्टत्याग, ऐस ग्यारा प्रकार देशविरत है ॥
भावार्थ - ये सागार संयमाचरणके ग्यारह स्थान हैं इनिकं प्रति- मा भी कहिये ॥ २२ ॥