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________________ .८८ पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचितहोय तौ सम्यत्व व्यवहार मार्गका लोप होय तातै व्यवहारी प्राणीकू व्यवहारहीका आश्रय कह्या है परमार्थ सर्वज्ञ जानै है ॥ ११-१२ ॥ आगें कहै है जो ऐसे कारणनिकरि सहित होय तौ सम्यक्व छोडै है, गाथा—उच्छाहभावणासं पसंससेवा कुदंसणे सद्धा। आण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ॥१३॥ संस्कृत-उत्साहभावनाशं प्रशंसासेवा कुदर्शने श्रद्धा । अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहााति जिनसम्यक्त्वम् ॥१३॥ अर्थ-कुदर्शन कहिये नैयायिक वैशेषिक सांख्यमत मीमांसकमत वेदान्तमत बौद्धमत चार्वाकमत शून्यवादके मत इनिके भष तथा तिनिके भाषे पदार्थ बहुरि श्वेतांबरादिक जैनाभास इनिकै विधैं श्रद्धा तथा उत्साहभावना तथा प्रशंसा तथा इनिकी उपासना सेवा करता पुरुष है सो जिनमतकी श्रद्धारूप सम्यत्त्ववकू छोडै है, कैसा है कुदर्शन अज्ञान अर मिथ्यात्वका मार्ग है ॥ __ भावार्थ--अनादिकालतें मिथ्यात्वकर्मके उदयतें यह जीव संसारमैं भ्रमै है सो काई भाग्यके उदय जिनमार्गकी श्रद्धा भई होय अर मिथ्यामतके प्रसंगकरि मिथ्यामतकै विषै किछु कारण” उत्साह भावना प्रशंसा सेवा श्रद्धा उपजै तो सम्यत्त्ववका अभाव होय जाय जातें जिनमत सिवाय अन्यमत है तिनिमैं छद्मस्थ अज्ञानीनि करि प्ररूप्या मिथ्या पदार्थ तथा मिथ्याप्रवृत्तिरूप मार्ग है ताकी श्रद्धा आवै तब जिनमतकी श्रद्धा जाती रहै तातै मिथ्यादृष्टीनिका संसर्गही न करना, ऐसा भावार्थ जाननां ॥ १३ ॥ आगैं कहै है जो ये ही उत्साह भावनादिक कहे ते सुदर्शन विर्षे होय तो जिनमतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्वकू न छोडै है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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