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'६८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__आगैं कहै है अल्पपरिग्रह ग्रहण करै तामैं दोष कहा ? ताकू दोष दिखावै है;गाथा-जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्तेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ॥१८॥ संस्कृत-यथाजातरूपसदृशः तिलतुषमात्रं न गृह्णाति हस्तयोः।
यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनः याति निगोदम्।।१८॥ अर्थ—मुनि है सो यथाजातरूप है जैसैं जन्मता बालक नग्नरूप होय है तैसा नग्नरूप दिगंबर मुद्राका धारक है सो अपने हाथविर्षे तिलके तुषमात्र भी किछू ग्रहण नहीं करै है, बहुरि जो किछू अल्प बहुत लेवै ग्रहण करै तौ वो मुनि ग्रहण करने निगोदमैं जाय है । ___ भावार्थ-मुनि यथाजातरूप दिगंबर निग्रंथकू कहैं हैं सो ऐसा होय करि भी किछू परिग्रह राखै तौ जानिये इनिकै जिनसूत्रकी श्रद्धा नाही मिथ्यादृष्टी है या मिथ्यात्वका फल निगोदही है, कदाचित् किछू तपश्चरणादिक करै तौ ताकरि शुभकर्म बांधि स्वर्गादिक पावै तौ भी फेरि एकेंद्रिय होय संसार ही मैं भ्रमण करै है।
इहां प्रश्न—जो, मुनिकै शरीर है आहार करे है कमंडलु पीछी पुस्तक राखै है, इहां तिल तुषमात्र भी राखनां न कह्या, सो कैसे ? - ताका समाधान-जो, मिथ्यात्वसहित रागभावसूं अपणाय अपनां विषय कषाय पोषनकू राखै ताकू परिग्रह कहिये है तिस निमित्त किछू अल्प बहुत राखनां निषेध्या है अर केवल संयमके निमित्तका तौ सर्वथा निषेध नाही । शरीर है सो तो आयुपर्यन्त छोड्या छूट नाही याका तौ ममत्वही छूटै सो निषेध्या ही है। बहुरि जे तैं शरीर है ते तैं आहार नहीं