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________________ अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका । ६७ श्रद्धान करो मन वचन काय करि स्वरूपविौं रुचिं करो तिस कारण करि मोक्षकू पावो बहुरि जिस करि मोक्ष पाइए तिसकू प्रयत्न कहिये सर्व प्रकार उद्यमकरि जानिये ।। भावार्थ-जिसकरि मोक्ष पाइये तिसहीका जाननां श्रद्धान करना यह प्रधान उपदेश है अन्य आडंबर करि कहा प्रयोजन ? ऐसैं जाननां ॥ १६ ॥ __ आगें कहै है जे जिनसूत्रके जाननेवाले मुनि हैं तिनिका स्वरूप फेरि दृढ करनेंकू कहै है;गाथा-वालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणां । मुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ॥१७॥ संस्कृत-वालाग्रकोटिमात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम् । भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने १७ ॥ अर्थ-वालके अग्रभागकी कोटि कहिये अणी तिसमात्र भी परिग्रहका ग्रहण साधुकै नहीं होय है, इहां आशंका है जो परिग्रह कभी नहीं है तो आहार कैसे करै है! ताका समाधान करै हैआहार करै है सो पाणिपात्र कहिये करपात्र जो अपने हाथही मैं भोजन करै है सो भी अन्यका दिया प्राशुक अन्न मात्र ले हैं सो भी एकस्थान ले हैं बार बार नहीं ले हैं अर अन्य अन्य स्थानमैं नहीं ले भावार्थ-जो मुनि आहार ही परका दिया प्रासुक योग्य अन्नमात्र निर्दोष एकवार दिनमैं अपने हाथकरि ले है तौ अन्य परिग्रह काहेर्नू ग्रहण करै नहीं ग्रहण करै, जिनसूत्रमैं ऐसे मुनि कहै हैं ॥ १७ ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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