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________________ श्री संवेगरंगशाला युद्ध प्रेमी सुभटों का प्रसन्नता का कारण बना था, घोड़ों का समूह हर्षारव कर रहा था, कई भाट बिरूदावली बोल रहे थे, युद्ध के सुन्दर बाजे बज रहे थे, शूरवीरों की प्रेरणा से युद्ध में उत्तेजन किया जाता था, युद्ध की नोबत बज रही थी, परस्पर जोर से चिल्ला रहे थे, विचित्र ध्वजा आदि में चिन्हों की मोहर लग रही थी, परस्पर प्रहार करने की शर्ते लग रही थीं, सुभट बख्तर से बगल बाँध रहे थे, जोर-जोर से बड़े शंख बज रहे थे, तीक्ष्ण तलवार का प्रकाश उछल रहा था जो प्रचंड कोप का कारण था, इस तरह परस्पर दोनों सेना का वह महायुद्ध प्रारम्भ हुआ। इसमें कायर आदमी भागने लगे। घोड़े, हाथी, योद्धा आदि मारे गये, और प्रहार के समूह से जर्जरित बने देह रूप पिंजर धरती ऊपर गिरने लगे, इस प्रकार निश्चय जो महायुद्ध हुआ उसमें शत्रु का जो सेना युद्ध में आयी थी वह सारी एक क्षण में ही भाग गयी। युद्ध करने में प्रबल महाभट जो कामरूप नामक राजा था उसे भी क्षण भर में जीत कर तुरन्त प्राण मुक्त कर दिया । शत्रु ओं के कठोर प्रहार से घायल हुए शरीर वाला वंकचूल भी शत्रु को जीत कर युद्ध भूमि में से जल्दी निकला और प्रहारों से पीड़ित उज्जैन नगर में पहुँचा, उसके आगमन से राजा भी बहुत प्रसन्न हुआ। वैध का समूह एकत्रित होकर उसके प्रहारों का उपचार किया परन्तु लेशमात्र भी आरोग्यता प्राप्त न हई, जख्म पुनः खुले होने लगे, उस कारण से वंकल ने अपने जीने की आशा छोड़ दो, इससे पुनः शोक से गद्-गद् स्वर से राजा ने वैद्यों को कहा-अहो ! मेरे सेनापति यदि किसी भी दिव्य औषध से जल्दी निरोगी हो उस औषध को तुम बार-बार दो, उसके बाद वैद्यों में निपुण बुद्धि से शास्त्रों का विचार कर परस्पर निर्णय करके कौए के मांस की औषध उसके घाव के लिए लाभदायक बतलाया, फिर भी जैन धर्म के प्रति निरूपम् अनुराग से 'भले प्राण जाए परन्तु नियम नहीं जाए' इस निश्चय को याद करते उसने कौए के मांस का निषेध किया। 'उसका अत्यन्त स्नेहो जिनदास के कहने से इस औषध को करेगा' ऐसा मानकर राजा ने अपने पुरुष को भेजकर अन्य गाँव से जिनदास को बुलाने भेजा । जिनदास ने आते हुए रास्ते में दो देवियों को रोते हुए देखकर पूछा-तुम क्यों रो रही हो' उन्होंने कहा कि-मांस नहीं खाने से मरकर वंकचल हमारे सौधर्मकल्प की देवियों का नाथ होगा, परन्तु यदि तुम्हारे वचन से किसी तरह भी मांस को खायेगा तो निश्चय नियम के भंग से वह अन्यत्र दुर्गति में पड़ेगा। इस कारण से हम रो रही हैं, अतः हे महाभाग ! यह सुनकर अब आपको जैसा योग्य हो वैसा करना।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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