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________________ ७२ श्री संवेगरंगशाला यह सुनकर विस्मित मन वाला वह जिनदास उज्जैनी में गया, और वंकचल को देखा, राजा के अति आग्रह से कहा-हे सुभग ! तु कौए के मांस का भक्षण क्यों नहीं करता? निरोगी शरीर होने के बाद तू प्रायश्चित कर देना । वंकचूल ने कहा-हे धर्म मित्र ! तू भी ऐसा उपदेश क्यों दे रहा है ? जानबूझ कर नियम का खण्डन कर फिर क्या प्रायश्चित हितकर है ? यदि नियम का भंग कर फिर उसका प्रायश्चित करना तो उससे प्रथम ही नियम भंग नहीं करना वही योग्य है। इससे जिनदास ने राजा को कहा-हे देव ! यह प्राण का त्याग करेगा परन्तु चिरकाल से ग्रहण किये नियम को नहीं छोड़ेगा। इसलिए हे देव ! अब वंकचूल का परलोक हित करो! निश्चित मृत्यु होने वाली है तो यह आकार्य करने से क्या लाभ ? ऐसा कहने से राजा ने श्रुतनिधि गीतार्थ साधुओं बुलाकर अन्तिम काल की विधि सहित धर्म का तत्त्व समझाया। उसके बाद वंकचूल ने साधु के पास में पूर्व के सारे दुराचारों की आलोचना करके समग्र जीवों से क्षमा याचना कर, पुनः अनेक व्रतों को सविशेषतया स्वीकार करके, आहार का त्याग करके, पंच परमेष्ठी मंत्र का जाप करते मरकर बारहवें अच्युत देवलोक में महद्धिक देव हआ। जिनदास भी अपने गाँव की ओर पुनः वापिस चला, रास्ते में उन दो देवियों को उसी तरह रोते देखकर बोला-वंकल ने मांस नहीं खाया है फिर तुम क्यों रो रही हो? तब देवियों ने कहा -उसने विशेष धर्म की आराधना करने से वह हमारा पति नहीं बना, परन्तु वह तो बारहवें कल्प में उत्पन्न हुआ है। इस कारण से पुण्य रहित हम तो आज भी पति बिना इसी प्रकार रहीं इसलिए शोक कर रही हैं। उसके बाद जिनदास 'वंकचूल ने जैन धर्म के प्रभाव से सुन्दर देव ऋद्धि प्राप्त की' ऐसा जानकर इस तरह चिन्तन करने लगा- . परम प्रीति से व्याकुल, नमे हुए इन्द्रों के समूह सोने के सुकूट से घिसते चरण कमल वाले सारे श्री जिनेश्वर भगवन्त विजयी हैं कि जिन्होंने मोक्ष अथवा देवलोक की लक्ष्मी का कर मिलाप करवाने में एक दक्ष रूप धर्म का उपदेश दिया है, उस धर्म के प्रभाव से अन्तिम समय में एक क्षण भी उसने अति शुद्धता पालन कर सारे गहरे पाप मैल को धोकर के वंकचूल के समान जोव श्रेष्ठगति को प्राप्त करते हैं उस श्री वीतराग परमात्मा का जगत्पूज्य धर्म विजयी रहे। इस तरह वंकचूल का चारित्र कहा, अब पूर्व में कथनानुसार चिलाती पुत्र का वृत्तान्त कहते हैं।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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