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________________ श्री संवेगरगशाला भद्र ! वरदान माँगो ! मैं तेरी शुद्ध प्रवृत्ति से प्रसन्न हुआ हूँ । इससे दो हाथ जोड़कर वंकल ने विनती की कि हे देव ! मुझे यही वरदान दो कि 'देवी के प्रति कुछ भी क्रोध नहीं करना' क्योंकि मैंने उसे माता कहा है । राजा ने उसे स्वीकार किया और अति गाढ़ स्नेह से उसके प्रति पुत्र समान अत्यन्त पक्षपाती बनकर राजा ने उस वकचूल को महान सामन्त पद पर स्थापन किया तथा हाथी, घोड़े, रत्न आदि वैभव और सेवक वर्ग उसे सौंप दिया । ७० वैभवशाली वकचूल विचार करने लगा कि - समग्र गुणों के भण्डार वे आचार्य श्री जी कैसे कल्याणकारी बने हैं अन्यथा मैं इस तरह कैसे जीता रहता ? अथवा मेरी बहन कैसे जीती रहती ? अथवा अभी ऐसी लक्ष्मी का भोक्ता मैं कैसे बनता ? हा ! मंद बुद्धि वाले और पराङमुख मुझ पर उपकार करने में एक रक्त वे महानुभाव गुरुदेव ने कैसा उपकार किया है ? वे ही निश्चत से चिन्तामणी हैं, कल्पवृक्ष और कामधेनु भी वही हैं, मात्र निष्पुण्यक मैंने लेशमात्र भी उन्हें नहीं जान सका । इस तरह उन आचार्य जी को कृतज्ञता से मित्र के समान, स्वजन के समान, माता-पिता के समान और देव के समाग हमेशा स्मरण करते वह दिन पूर्ण करने लगा। किसी दिन उसने दमघोष नामक आचार्य को देखा, और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ भक्तिपूर्वक हृदय से उनको वंदन किया । आचार्य श्री ने उसे योग्य जानकर श्री अरिहंत धर्म के परमार्थ को समझाया और अनुभव सिद्ध होने से अति हर्ष से उसने उस धर्म को स्वीकार किया । और समीप के गाँव में रहने वाला धर्म में परम कुशल जैनदास श्रावक के साथ उसकी मित्रता हो गई, इससे उसके साथ हमेशा विविधनयों से और अनेक विभागों से गम्भीर आगम को सुनता था, स्वजन के सदृश धर्मियों का वात्सल्य करता था, श्री जैन मन्दिर में सर्व क्रिया पूजा प्रक्षाल अंग रचना आदि आदरपूर्वक करता था पूर्व में ग्रहण किये अभिग्रह रूपी वैभव को सदैव चिन्तन करते और प्रमाद रहित आगमानुसार जैन धर्म का परिपालन करते वह सज्जनों के प्रशंसा पात्र बना हुआ नीति से सामन्तपने की लक्ष्मी को भोगने वाला बना । किसी दिन राजा की आज्ञा से वह बहुत सेना के साथ 'कामरूप' राजा की सेना के साथ युद्ध करने चला । काल क्रम से शत्रु के देश की सीमा में पहुँचा, उसी समय शत्रु भी वहाँ आ पहुँचा । 1 वहाँ सुन्दर चामर ढुलते रहे थे, छत्रों का आडम्बर चमक रहा था, रथों का समूह चलने से उसकी आवाज गूंज रही थी, योद्धाओं उल्लासपूर्वक उछल रहे थे, मदोन्मत्त हाथी परस्पर सामने नजदीक में आ रहे थे, इस कारण से
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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