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________________ श्री संवेगरंगशाला रखते हो ? वह सारा वृत्तान्त कहो ! पुरुषों ने कहा कि-श्रीपुर नगर से विमलयश राजा का पुत्र वंकचूल नाम का है, वह पिता के अपमान से निकल कर परदेश जाने के लिये यहाँ आया है और हम उसके सेवक तुम्हारे पास मार्ग पूछने आये हैं। भिल्लों ने कहा कि-अरे ! हमारे राजा के पुत्र को हमें दिखाओ, पुरुषों ने स्वीकार किया, और वापिस आकर राजकुमार को दिखाया। फिर दूर से ही धनुष-बाण आदि शस्त्रों को छोड़कर भिल्लों ने कुमार को नमस्कार करके विचार करने लगे कि-इस प्रकार के सुन्दर राजा के लक्षणों से अलंकृत यदि यह किसी तरह से अपना स्वामी हो जाए, तो सर्व सम्पत्ति हो जाए। ऐसा विचार कर उन्होंने दोनों हाथ से भालतल अपर अंजली करके विनय और स्नेहपूर्वक कहा-हे कुमार ! आप हमारी विनती को सुनो ! चिरकाल के संचित पुण्योदय से निश्चय आप जैसे प्रवर पुरुषों के दर्शन हुये हैं, इससे कृपा करके हमारी पल्ली में पधारो। पल्ली को निज चरण कमल से पवित्र करो और उसका राज्य करो। स्वामी बिना थे, हमारे आज से आप ही स्वामी हैं। देश निकाला होने से अपने कुटुम्ब की व्यवस्था की चाहना वाला तथा प्रार्थना होने से कुमार ने उनकी बात स्वीकार की, विषय का रागी क्या नहीं करता? उसके बाद प्रसन्न-चित्त वाले उन भिल्लों ने मार्ग दिखलाया और परिवार के साथ वह पल्ली की ओर चला और अति गाढ़ वृक्षों से विषम मार्ग से धीरे-धीरे चलते वह सिंह गुफा नामक पल्ली के पास आया, देखने मात्र से अति भयंकर विषम पर्वतों रूपी किल्लों के बीच में रहती यम की माता के सदृश भयंकर उस पल्ली को देखी, वह पल्ली एक ओर मरे हुए हाथियों के बड़े दांत द्वारा की हुई वाडवाली और अन्यत्र से मांस बेचने आये हुए मनुष्यों के कोलाहल वाली थी। एक ओर कैदी रूप में पकड़े हुए मुसाफिर के करूण रूदन के शब्दों वाली थी और अयन्त्र मरे हुए प्राणियों के खन से भरी हुई पृथ्वी में खड़े थे, एक ओर भयानक स्वर से धुत्कार करते सुअर या कुत्तों के समूह से दुःप्रेक्ष्य था और दूसरी ओर लटकते मांस के भक्षण के लिये आये हुए पक्षियों वाली थी, एक तरफ परस्पर वैरभाव से लड़ते भयंकर लड़ने वाले भिल्लों वाली थी और दूसरी ओर लक्ष्य को बीधने के लिए एकाग्र बने धुनर्धारी युक्त थे, और जहाँ निर्दय मूढ पुरुष दुःख से पीड़ित होते मनुष्यों को मारने में धर्म कहते थे, और परस्त्री सेवन को अकृत्रिम परम शोभा कहते थे। वहाँ विश्वासु विशिष्ट मनुष्यों को ठगने वाले की बुद्धि वैभव की प्रशंसा होती है और हित वचन कहने के सामने दृढ़ वैर तथा इससे विपरीत अहित कहने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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