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________________ श्री संवेगरंगशाला ५६ वाले के साथ मैत्री भाव की जाती थी। जैसे तैसे बोलने वाले को भी वचन कौशल्य रूप में प्रशंसनीय गिना जाता था, और न्याय के अनुसार चलने वाले को वहाँ सत्त्व के बिना कहा जाता था। जैसे अत्यन्त पापवश हुआ नरक कूटि में जाता है वैसे ऐसे पापी लोगों से युक्त पल्ली में उस कुमार ने प्रवेश किया। और भिल्लों ने उसे वहाँ अति सत्कारपूर्वक पुराने पल्लिपति के स्थान पर स्थापन किया, फिर अपने पराक्रम के बल से वह थोड़े काल में पल्लिपति बना। कुलाचार का अपमान कर पिता के धर्म व्यवहार को भी विचार किये बिना, लज्जा के भार को एक तरफ फेंक कर, साधुओं को धर्मवाणी को भूलकर बनवासी हाथी के समान रोक टोक बिना वह सदा भिल्ल लोगों से घिरा हुआ हमेशा हिंसा आदि करता, नजदीक के गाँव, पूर, नगर, आकर आदि को नाश करने में उद्यमी, स्त्री, बाल, वृद्ध विश्वासु का घात करने का ध्यान वाला, हमेशा जुआ खेलने वाला, और नित्यमेव मांस, मदिरा से जीने वाला उस पल्ली में ही अथवा उन पापों में ही आनन्द मानने वाला लीलापूर्वक काल व्यतीत करने लगा। __ अन्य किसी दिन विहार करते हुए किसी कारण से साथियों से अलग होकर कुछ शिष्यों के साथ एक आचार्य महाराज वहाँ पधारे। उसी समय ही मूसलाधार वर्षा होती और मोर के समूह को नाचती हुई प्राथमिक वर्षा ऋतु का आरम्भ हुआ। उस वर्षा ऋतु में पत्तों से अलंकृत वृक्ष शोभते थे, हरी वनस्पति के स्तर से ढ़की हुई पृथ्वी मण्डल शोभ रहा था, जबकि महान् चपल तरंगों की आवाज के बहाने से मानो ग्रीष्म ऋतु को हाँक कर निकाल रहे हों इस तरह महान् नदियाँ पर्वतों के शिखर के ऊपर से गिर रही थीं। उस वर्षा में बहत जल गिरने से पृथ्वी मण्डल में सर्वत्र मार्ग विषम हो गये थे, अतः हताश हुये मुसाफिर मानो अपनी पत्नी का स्मरण हो जाने से वापिस लौटते हों, इस तरह दूर या बीच से वापिस आ रहे थे। इससे ऐसा स्वरूप वाला वर्षाकाल देखकर आचार्य श्री ने सद्गुणी में श्रेष्ठ साधुओं को कहा किभो महानुभावों! यह पृथ्वी उगे हए तृण के अंकुर वाली तथा कैथुवा, चींटी आदि बहत से जोवों वाली हो गई है। इसलिए यहाँ से आगे जाना योग्य नहीं है, क्योंकि श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि-इस दीक्षा में जीव दया धर्म का सार है उसके अभाव में दुष्ट राजा की सेवा के समान दीक्षा निर्रथक बनती है। इस कारण से ही वर्षा ऋतु में महामुनि कछुआ के समान अंगो पांग के व्यापार को अत्यन्त संकोच कर एक स्थान पर रहते हैं। अतः इस पल्ली में जाये क्योंकि निश्चय ही यहाँ पर वंकचूल नामक विमलयश राजा का पुत्र
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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