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________________ श्री संवेगरंगशाला !५७ वकचूल की कथा 1 यथास्थान पर रचना किये हुए तीन रास्ते, चार मार्ग, बाजार, मन्दिर और भवनों से स्मरणीय श्रीपुर नाम का नगर था । उसमें विमलसेन नाम का राजा राज्य करता था । युद्ध में शत्रुओं के हाथियों के कुम्भस्थल भेदन करने से लगे हुए रुधिर के बिन्दुओं से उदभट कान्ति वाला उसकी तलवार मानो अत्यन्त कुपित हुई यम की कटाक्ष हो ऐसी दिखती थी जबकि दूसरी ओर मणिमय मुकुट की किरणों से अलंकृत उसका मस्तक भक्तिवश जिन मुनियों के चरण कमलों में भ्रमर जैसा बन जाता था । उस राजा के निरूपम रूप आदि गुणों से देवियों को भी लज्जित करने वाली सकल अन्तःपुर में श्रेष्ठ सुमंगला नाम की रानी थी। साथ में जन्म लेने से परस्पर अति स्नेह वाले उसके पुत्र पुष्पचूल नामक पुत्र और पुष्पचूला नामक पुत्री दो सन्तानें थीं । परन्तु नगर में सर्वत्र अनर्थों को उत्पन्न करने से पुष्पचूल को निश्चय रूप में वंकी कहते थे । इस तरह नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त करते वकचूल का एक दिन उलाहना राजा को सुनना पड़ा, इससे रोषित होकर राजा ने उसे देश निकाला दिया । तब अपने परिवार से युक्त उस बहन को साथ लेकर नगर से चल दिया । क्रमशः – आगे बढ़ते वह अपने देश का उल्लंघन कर एक अटवी (जंगल) में पहुँचा जहाँ बहुत पर्वत सनाथ सहित थे, सिंह के नखों से भेदन किये हुये हाथियों की चींख से भयंकर था, जहाँ घटादार महावृक्षों ने सूर्य की किरणों को रोक दिया था, घूमते हुए अष्टापद प्राणियों के हेषाख आवाज सुनकर सिंह वहाँ से दौड़-भाग रहे थे, सिंहों को देखने से व्याकुल बने मृग का झुंड वहाँ गुफाओं में प्रवेश कर रहा था । कामी पुरुषों से वेश्या जैसी घिरी हुई होती है वैसे सर्पों से सारा वन व्याप्त था, वहाँ पर कोई भी मार्ग नहीं दिखता था, ऐसे भयानक अटवी में आ पहुँचे । वहाँ भूख-प्यास से पीड़ित वह वकचूल बोला- हे पुरुषों ! ऊंचे वृक्ष के ऊपर चढ़कर चारों तरफ देखो ! कि यहाँ कहीं पर जलाशय अथवा गाँव आदि बस्ति है ? उसके कहने पर पुरुषों ने ऊँचे श्रेष्ठ वृक्ष के ऊपर चढ़कर चारों दिशा में अवलोकन करने लगे तब उन्होंने थोड़ी दूर काले श्याम और जंगली भैंसे के समान काले शरीर वाले, अग्नि को जलाते हुए, भिलों को देखा और उन्होंने राजपुत्र से कहा । उसन भी कहा कि हे भद्रों ! उनके पास जाओ और गाँव का रास्ता पूछो। यह सुनकर पुरुष उन भिल्लों के पास गये, और मार्ग का रास्ता पूछने लगे, तब भिल्लों ने कहा कि- तुम यहाँ कहाँ से आये हो ? तुम कौन हो ? किस देश में जाने की इच्छा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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