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________________ श्री संवेग रंगशाला ५१ कि - यावज्जीव प्रतिज्ञा का पालन करना उसे आराधना कहा है, प्रथम उसका भंग करे तो मृत्यु के समय उसे वह आराधना कहाँ से प्राप्त होगी ? अत: मुनियों को शेषकाल में भी यथाशक्ति दृढ़तापूर्वक अप्रमत्त भाव से मृत्यु त आराधना करते रहना चाहिए जैसे हमेशा जपा हुई विद्या मुख्य साधना बिना सिद्ध नहीं होती है वैसे हा जीवन पर्यन्त आराधना भी प्रवज्या रूप विद्या मरणकाल में आराधना बिना सिद्ध नहीं होती है । जैसे पूर्व में क्रमशः अभ्यास न किया हो ऐसा सुमट यद्यपि युद्ध में वह समर्थ हो, फिर भी शत्रु सुमटों की लड़ाई में वह युद्ध के आगे जय पताका को प्राप्त नहीं कर सकता है, वैसे पूर्व में शुभयोग का अभ्यास न किया हो वह मुनि भी उग्रपरीषह के संकट युक्त मृत्युकाल में आराधना की निर्मल विधि को नहीं प्राप्त कर सकता है, क्योंकि निपुण अभ्यासा भो अत्यन्त प्रमादी होने के कारण स्वकार्य को सिद्ध नहीं कर सकता, तो मृत्यु के समय कैसे सिद्ध कर सकेगा ? इस विषय में विरति की बुद्धि से भृष्ट हुए क्षुल्लक मुनि का दृष्टान्त देते हैं वह इस प्रकार है : आराधना विराधना के विषय में क्षुल्लक मुनि को कथा महमण्डल नामक नगर था । उसके बाहर उद्यान में ज्ञानादि गुण रूप रत्नों के भण्डार रूप श्री धर्म घोष सूराश्वर जी महाराज पधारे । उनका निर्मल गुण वाल पाँच सो मुनिया का परिवार था, देवा घिरे हुए इन्द्र शोभता वैसेळशिष्यों से घिरे हुए वे शाभते थे, फिर भी समुद्र में वड़वा नल समान, देवपुरी में राहु के सदृश, चन्द्र समान उज्जवल परन्तु उस गच्छ में संताप कारक, भयंकर, अति कलुषित बुद्धि वाला, निधर्मी, सदाचार और उपशम गुण बिना का, केवल साधुओं को असमाधि करने वाला रूद्र नाम का एक शिष्य था । मुनिजन के निन्दापात्र कार्यों को बारम्बार करता था । उसे साधु करुणापूर्वक मधुर वचनों से समझाते थे कि - हे वत्स ! तूने श्रेष्ठ कुल में जन्म लिया है, तथा उत्तम गुरु ने दीक्षा दी है, इसलिए तुझे निन्दनीय कार्य करना वह अयुक्त है । ऐसे मीठे शब्दों से रोकने पर भी जब वह दुराचार से नहीं रुका, तब फिर साधुओं ने कठोर शब्दों में कहा कि - दुः शिक्षित ! हे दुष्टाशय ! यदि अब दुष्ट प्रवृत्ति करेगा तो धर्म-व्यवस्था के भंजक ( नाश करने वाले) तुझे गच्छ में से बाहर निकाल दिया जायेगा । इस तरह उलाहना से रोष भरे उसने साधुओं को मारने के लिये सभी मुनियों के पीने योग्य पानी के पात्र में उग्र जहर डाल दिया । उसके बाद प्रसंग पड़ने पर जब साधु पीने के लिए उस पानी को लेने लगे तब उनके चारित्र गुण से प्रसन्न बनी देवी ने कहा कि ओ
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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