SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० श्री संवेगरंगशाला होने वाले हैं ? इस तरह हमेशा विलाप करती और शोक से व्याकुल बनकर रोती उसकी आंखों में मोतिया आ गया | जब विभवन के एक प्रभु श्री ऋषभदेव को विमल केवल ज्ञान का प्रकाश प्रगट होने से देवों ने मणिमय सिंहासन से युक्त समष सरण की रचना की, तब केवल ज्ञान की उत्पत्ति को सुनकर मरूदेवी के साथ हाथी के ऊपर बैठकर प्रभु को वन्दनार्थ के लिए आते भरत महाराजा जगद् गुरु का छत्रातिछत्र आदि ऐश्वर्य देखकर विस्मयपूर्वक कहने लगा कि - हे माताजी ! सुर, असुरादि तीनों जगत से पूजित चरण कमल वाले आपके पुत्र को और जगत के आश्चर्यकारक उनका परम ऐश्वर्य को देखो ! आप आज तक जो मेरी ऋद्धि की आदर से प्रशंसा करते हैं, वह तुम्हारे पुत्र की ऋद्धि से एक करोड़वाँ भाग के भी गिनती में नहीं है । हे माता जी ! देखो यह ऋद्धि, तीन छत्ररूपी चिह्नों से शोभता बड़ो शाखाओं वाला मनोहर अशोक वृक्ष है, और तीन भवन की शोभा विस्तारपूर्वक बताने वाला रम्य यह प्रभु का आसन है । हे माता जी ! देखो | पंचवर्ण के रत्नों से रचित द्वार वाला, चांदी, सोना और मणि के तीन गढ़ से सुन्दर तथा घुटने तुक पुष्पों का समूह से भूषित समवसरण की यह भूमि है । और हे माता जी ! एक क्षण के लिए ऊपर देखो ! आतेजाते देवों के समूह से शोभता आर विमान को पक्तियों से आकाश मन्डल ढक गया है, और यह आकाश दुंदुभि की आवाज से व्याप्त होकर गूंज उठा है । हे माता जी ! देखो, इस तरफ इन्द्रों का समूह मस्तक को नमाकर प्रभु की स्तुति करते हैं, देखो । इस तरफ अप्सराएँ नाच रही हैं, और ये किन्नर हर्षपूर्वक गाने गा रहे हैं । भरत महाराजा की बातें सुनकर और जैनवाणी का श्रवण करने से हर्ष प्रगट हुआ, हर्ष समूह से नेत्रपटल आनन्दाश्रुजल से धुल कर साफ हो गए, निर्मल नेत्रों वाली मरुदेवी ने छत्त्रातिछत्र आदि ऋषभदेव की ऋद्धि देखकर मोह समाप्त हो गया, ओर शुभध्यान को प्राप्त करने से उसके सब कर्म खत्म हो गये । उसी समय उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । इस अवसर्पिणी-काल में मरुदेवी माता ने सर्वप्रथम शिव सुख की सम्पत्ति प्राप्त की । इस तरह अन्तिम आराधना मोक्ष के सुख का कारणभूत है । यह सुनकर संशय से व्याकुल चित्तवाला बना हुआ शिष्य गुरु को विनयपूर्वक नमस्कार करके पूछा कि यदि प्रवचन का सार मुनिवरों को मृत्यु के समय में वह आराधना करनी है तो अभी शेषकाल में तप, ज्ञान, चारित्र में क्यों प्रयत्न- कष्ट सहन करते हैं। गुरु महाराज ने कहा- उसका कारण यह है
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy