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________________ 8389 श्री संवेगरंगशाला संक्षिप्त और विशेष आराधना का स्वरूप :- इस तरह सामान्यतया कही हुई इस आराधना की विशेष स्वरूप में भी दो भेद कहे हैं, संक्षेप और विस्तार से । उसमें विशेष आराधना भी संक्षेप में इस तरह होती है । साधु अथवा श्रावक यदि वह अत्यन्त अस्वस्थ, महा रोगी आदि होने से विस्तार सहित आराधना के लिए उसे अनुचित जानकर गुरु महाराज अत्यन्त तीव्र रोग के आधीन होने पर भी चित्त में सन्ताप को प्राप्त न किया हो और आराधना की इच्छा वाले हो ऐसे गृहस्थ और साधु की आलोचना करवाकर पाप रूप शल्य का उद्धार कराती है । और ऐसे गुरु महाराज का योग नहीं मिले तो स्वयमेव साहस का आलंबन लेकर श्रावक या साधु अपनी भूमिका के अनुसार चैत्यवंदन आदि यथायोग्य करके, ललाट पर दोनों हाथ से अंजलि जोड़कर हृदयरूपी उत्संग में श्री अरिहंत भगवन्त को तथा श्री सिद्धों को विराजमान कर इस प्रकार बोले :- भावशत्रु को नाश करने वाले श्री अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो तथा परम अतिशयों से समृद्धशाली सर्व श्री सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करता हूँ। मैं यहाँ रहकर आपको वंदन करता हूँ, वहाँ पर रहे अप्रतिहता केवल ज्ञान के प्रकाश से वे मुझे वंदन करते देखे । फिर विनति करे कि- मैंने पूर्व में भी निश्चय रूप में सत् क्रिया से प्रसिद्ध संविग्न और सुकृत योगी श्री सद् गुरुदेव के आगे मेरे सर्व मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण किया था, तथा उनके समक्ष ही मैंने संसार रूपी पर्वत को भेदन करने में दृढ़ वज्र समान जीवाजीव आदि पदार्थों की रुचि स्वरूप सम्यक्त्व को स्वीकार किया था। अभी भी उनके समक्ष भव भ्रमण का कारण रूप सम्पूर्ण मिथ्यात्व को विशेष स्वरूप से त्रिविध- त्रिविध द्वारा त्याग किया है और पुनः उनके समक्ष सम्यक्त्व को भी स्वीकार करता हूँ और उसके पूर्व में भी मुझे भाव शत्रुओं के समूह को नाश करने से सद्भूतार्थ श्रेष्ठ अरिहंत नाम के श्री भगवन्त मेरे देव हैं और साधु महाराज मेरे गुरु हैं ऐसी मेरी प्रतिज्ञा थी और अभी सविशेषतया दृढ़ बने, इस व्रतों को भी पुनः विशेष रूप पूर्व में मुझे समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव था और समक्ष मेरी वह मैत्रीभाव विशेष रूप में हो। ऐसा करके फिर सर्व जीवों को मैं खमाता हूँ वे मुझे क्षमा करें, मेरी मैत्री ही है, उनके ऊपर मन से भी द्वेष नहीं है इस तरह क्षमापना करे, तथा द्रव्य क्षेत्र काल, भाव आदि के प्रति राग वह भी मैंने सर्वथा त्याग किया है, शरीर का राग भी त्याग किया है । इस तरह राग का त्याग करके भव से उद्विग्न बना वह त्रिविध अथवा चतुर्विध आहार का सकार या अनाकार पच्चक्खान से त्याग करे; फिर अत्यन्त भक्तिपूर्वक भी वही प्रतिज्ञा मुझे स्वीकार करता हूँ तथा वर्तमान में भी आपके ४४
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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