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________________ श्री संवेग रंगशाला ४३ दस प्रकार के क्षमादि यति धर्म, पडिलेहण, प्रमार्जना आदि, तथा दस प्रकार का चक्रवाल रूप पृच्छा - प्रति पृच्छादि साधु समाचारी का पालन करना । उस चारित्र की आराधना अथवा दसविध वैयावच्च में, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ति में, बयालीस दोष रहित पिण्ड विशुद्धि में, तीन गुप्ति में, पांच समिति में अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आश्रित् यथाशक्ति अभिग्रह स्वीकार करने में, इन्द्रियों के दमन करने में, और क्रोधादि कषायों के निग्रह करने में, प्रति पत्ति अर्थात प्रतिज्ञा तथा अनित्यादि बारह भावना, और पांच महाव्रत सम्बन्धी पच्चीस भावना का हमेशा चिन्तन करना और विशेष अभिग्रह स्वीकार करने रूप बारह प्रकार की भिक्षु प्रतिमा का जो सम्यग् पालन करना तथा सामायिक, छदोष स्थापनिका, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, तथा यथा ख्यात् ये पांच चारित्र यथा शक्ति सेवन करना तथा उत्तम चारित रत्न से परिपूर्ण पुरुषसिंह साधु महात्माओं के प्रति जो हमेशा भक्ति, विनय आदि करना वह सर्वं चारित्र की आराधना कही है । ताप की सामान्य आराधना :- जिस तरह मन को खेद न हो, तथा प्रकार की शरीर की बाधा न हो, इन्द्रियों में भी इसी तरह विकलता को प्राप्त न करे, रूधिर मांस आदि शरीर की धातुओं की जिस तरह पुष्टि और क्षीणता भी न हो, तथा अचानक वात, पित्त आदि धातु दूषित भी न बने, आरम्भ किये संयम गुणों की हानि न हो, परन्तु उत्तरोत्तर उन गुणों की वृद्धि हो उस तरह से उपवास आदि छह प्रकार का बाह्य तपस्या में तथा प्रायश्चित आदि छह प्रकार का अभ्यतेर तप में भी प्रवृत्ति करना और 'इस लोक परलोक' के सर्व सुख की इच्छा को सर्वथा त्याग और बल, वीर्य पुरुषार्थ को हमेशा छुपाये बिना विधिपूर्वक इस तप को श्री जिनेश्वर भगवान ने आचरण किया है श्री जिनेश्वर देव ने उपदेश दिया है इसलिए तीर्थंकर पद प्राप्त कराने वाला है अतः संसार का नाशक है, नर्जरा रूप फल देने वाला है, शिव सुख का निमित्त रूप है, मन चिन्तन के अर्थ को प्राप्त कराने वाला है, दुष्कर रूप चमत्कार आश्चर्य करने वाला है, सर्व दोषों का निग्रह करने वाला है, इन्द्रियों का दमन करने वाला है, देवों को भी वश करने वाला है, सर्व विघ्नों का हरने वाला है, आरोग्य कारक है, और उत्तम मंगल के लिए वह तप योग्य है । ऐसा समझकर इन हेतु से बहुत प्रकार से करने योग्य होने से और परम पूज्य होने से, उसे करने का जो उद्यम करना, परम संवेग - उत्साह - आदर प्राप्त करना और विविध तप गुण रूपी मणि के रोहण गिरि समान पुरुषसिंह महातपस्वी महात्माओं के प्रति विनय सन्मान आदि करना वह सब तपाचार की आराधना कहा है ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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