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________________ श्रो संवेगरंगशाला वह पंचपरमेष्ठि मन्त्र का जाप करते सध्यान को करते काल करे । इस संक्षिप्त आराधना में मधुराजा और दूसरा निश्चल प्रतिज्ञा वाला सूकौशल मुनि का दृष्टान्त रूप में कहा है वह इस प्रकार से : मधुराजा का प्रबन्ध जीवाजीवादि तत्त्वों को विस्तारपूर्वक जानने वाला और परम समकित दृष्टि युक्त, इतना ही नहीं, किन्तु शास्त्र में श्रावक के जितने गुण कहते हैं उन सभी गुणों से युक्त मथुरा नगरी का मधु नाम का राजा था, वह धन्य राजा एक समय क्रीड़ा के लिए परिमित सेना के साथ उद्यान में गया। वहाँ क्रीड़ा करते उसे समदेव के भाई द्वारा गुप्त रूप में जानकर शवंजय नामक प्रतिशत ने महान् सेना से घेर लिया, और आक्षेपपूर्वक कहा कि यदि जीने की इच्छा हो तो भुजबल का मद छोड़कर मेरी आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाओ। उस समय मधुराजा बोला-अरे पापी ! ऐसा बोलकर तू अभी क्यों जीता है ? ऐसा तिरस्कार करते भ्रकुटी चढ़ाकर भयंकर बनकर बख्तर रहित शरीर वाला दर्प रूपी उद्धत श्रेष्ठ हाथी ऊपर चढ़कर वह जीवन से निरपेक्ष होकर उसके साथ युद्ध करने लगे। उस युद्ध में हाथियों के गले कटने लगे, उसमें महावत हाथियों के ऊपर से नीचे गिरने लगे, अग्रसर हाथी भो उसमें से पीछे हटने लगे, उसमें हाथी रथ आदि के बन्धन टूट रहे थे, योद्धाओं के जहाँ दाँत से होंठ कुचलते थे, जहाँ श्रेष्ठ योद्धा मर रहे थे, श्रेष्ठ तलवार उसमें टूट-फूट रही थीं। डरपोक लोग वहाँ से भाग रहे थे, अंगरक्षक का उसमें छेदन हो रहा था, भाले की नोंक से जहाँ परस्पर कॉख (बगल) भेदन हो रहे थे, वहाँ बहुत रथ टूट रहे थे, वहाँ परस्पर भयंकर प्रहार हो रहे थे, वह धरती सर्वत्र रुधिर से लाल बन गई थी, और कटे हुए मस्तकों से भयंकर दिखने लगी। इस तरह युद्ध द्वारा मधुराजा शत्रपक्ष को दुःखी बना दिया, शत्रुओं के लगातार शस्त्रों का समूह फेंकने से घायल अंग बना हुआ, हाथी की पीठ के ऊपर बैठा युद्ध भूमि में से निकलकर अत्यन्त सत्वशाली मन से वैरागी बनकर मान और शोक से युक्त युक्त विचार करने लगा कि बाह्य दृष्टि से राज्य भोगते हुये भी निश्चय से श्री जैन वचन रूपी अमृत द्वारा वासित मेरे मन में यह मनोरथ था कि सैंकडों जन्मों की परम्परा का कारणभूत राज्य को आज त्याग करूँ, कूल छोड़कर और मोक्ष में हेतुभूत सर्वज्ञ कथित दीक्षा को ग्रहण करूँ, फिर उसे निरतिचार युक्त पालन करूँ, अन्तकाल में विधि अनुसार निष्पाप होने के लिए चार शरण स्वीकार, दुष्कृत
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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