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________________ श्री संवेगरंगशाला ३६ सूर्य सदृश प्रभु ने अपने हाथ से उसको असंख्य दुःख से मुक्त करने में समर्थ दीक्षा दी, फिर भगवान ने शिक्षा दी : प्रभु को हित शिक्षा-अहो ! यह दीक्षा तुमने महान् पुण्योदय से प्राप्त की है। इस कारण से अब से प्रयत्नपूर्वक प्राणीवध, असत्य, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह के आरम्भ को मन, वचन, काया के योग द्वारा और करना करवाना और अनुमोदन तीन करण द्वारा यावज्जीव तक अवश्य छोड़ देना चाहिये, और कर्म के नाश में मूल कारण बारह प्रकार तप में विशेष रूप में हमेशा प्रमाद को छोड़कर शक्ति अनुसार प्रयत्न करना चाहिये। धन धान्यादि द्रव्यों में, गाँव, नगर, खेत, कर्बर आदि क्षेत्र में, शरद् आदि काल में तथा औदयिक आदि भावों में अल्प भी राग अथवा द्वेष मन से भी करने योग्य नहीं है, क्योंकि-फैले हुए संसाररूपी महावृक्ष का मूल ये राग-द्वेष है। ऐसा चिरकाल तक शिक्षा देकर प्रभु ने कनकवती साध्वी को चन्दनवाला को सौंपा और महसेन मुनि को स्थविर साधुओं को सौंपा। उसके बाद वह महात्मा महसेन स्थविर मुनियों के पास सूत्र अर्थ का अध्ययन करते गाँव, नगरों से विभूषित वसुन्धरा के ऊपर विचरने लगे। इधर कुछ दिनों में केवली पर्याय का पालन कर श्री महावीर प्रभ ने यावापुरी में अचल और अनुत्तर शिव सुख (निवार्णपद) को प्राप्त किया । उस समय महसेन मुनि ने इस तरह विचार किया-अहो ! कृतान्त को कोई असाध्य नहीं है, ऐसे प्रभु ने भी नश्वर भाव को प्राप्त किया है। जिसकी पादपीठ नमन करते इन्द्रों के समूह के मणिमय मुकुट से घिस जाती है, जिनके चरण के अग्रभाग से दबने पर पर्वत सहित धरती तल कम्पायमान होता है पृथ्वी तल को छत्र और मेरूपर्वत को दण्ड करने की जिसमें श्रेष्ठ सामर्थ्य है और कल्पवृक्ष आदि श्रेष्ठ प्रातिहार्य की शोभा जिनका ऐश्वर्य प्रकट हुआ है उनको भी यदि अत्यन्त दुनिवार अनित्यतावश करता है तो असार शरीर वाले मुझ जैसे की क्या गणना है ? अथवा तीन जगत् के एक पूज्य जगत् गुरु का शोक करना योग्य नहीं है क्योंकि उन्होंने कर्म की गाँठ को तोड़कर शाश्वतस्थान प्राप्त किया है । मैं ही शोक करने योग्य हूँ, क्योंकि आज भी कठोर कर्म के बन्धन से अत्यन्त जकड़ा हआ कैदखाने में रहता है, वैसे संसार में रहता हूँ अथवा जरा से जर्जरीत मुझे इस शरीर से क्या विशेष लाभ होने वाला है कि जिससे मैं नित्य तपस्या करने में उद्यम नहीं कर सकता हूं? इसलिए इसके बाद मुझे विशेष आराधना करनी चाहिये, परन्तु निश्चित और सुविस्तृत अर्थ वाली उक्त आराधना को किस तरह जानता अथवा इस चिन्तन से क्या लाभ ?
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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