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________________ श्री संवेग रंगशाला अभी केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले गणधरों के इन्द्र श्री गौतम स्वामी के पास जाऊँ, और एकाग्र चितवाला गृहस्थ और साधु सम्बन्धी भेद-प्रभेद वाली उक्त आराधना की विधि को पूंछू । उपर्युक्त मैं वहाँ जाकर उस विधि को विस्तारपूर्वक जानकर स्वयं आचरण करूँ और अन्य भी योग्य जोवों को कहूँ । प्रथम सम्यग् प्रकार से जानना, फिर उसका आचरण करना और उसके बाद दूसरों को उपदेश देना, क्योंकि - जिसने अर्थ को यथार्थ रूप नहीं जाना वह उपदेशक अपना और दूसरों का नाश करता है । ऐसा सोचकर कलिकाल का विजय करने में बद्धलक्ष्य वाला प्रत्यक्ष धर्मराजा के समान वह महात्मा महसेन मुनि श्री गौतम स्वामी के पास चला । तप से शरीर दुबला हो जाने से प्रलयकाल ४० सूखी हुई गंगा नदी के पवन से तरंग प्रवाह जैसे मन्द चलता है, वैसे धीरेधीरे भूमि के ऊपर कदम रखते शरीर पर लगी हुई पापरज को लगातार साफ करते हो इस तरह वृद्धावस्था के कारण, हाथ, पैर, मस्तक, पेट आदि सर्व अंगों से काँपता, युग प्रमाण दृष्टि से आगे देखते हुए उसके पास जाकर विनयपूर्वक शरीर को नमस्कार उस महसेन मुनि ने तीन प्रदक्षिणापूर्वक श्री गौतम गणा - धीश को वन्दन किया और हर्षावेश से विकसित नेत्र वाले उसने खिले हुए कलियों समान हस्त कमल को ललाट पर लगाकर सद्भूत वचनों से स्तुति करने लगा : त्रिलोक के सूर्य ! हे जगद् गुरु ! हे वीर जैन के प्रथम शिष्य ! हे भयंकर भवाग्नि से संतृप्त शरीर वाले जीवों की शान्ति के लिए मेघ समान ! आपकी विजय हो । नयोरूपी महा उछलते तरंगों वाली बारह निर्मल अंग वाली ( द्वादशांगी रूप ) गंगा नदी के आप उत्पादक होने से हे हिमवंत महापर्वत तुल्य गुरुदेव ! आप विजयी बनो । अक्षीण महानसी लब्धि द्वारा पन्द्रह सौ तापसों को परम तृप्ति देने वाले, तथा अत्यन्त प्रसिद्ध अनेक लब्धियों रूप उत्तम समृद्धि से सम्पन्न, हे प्रभु! आपकी जय हो । हे धर्मधुरा को धारण करने वाले एक वीर ! आप विजयी बनो! हे सकल शत्रुओं को जीतने वाले गुरु देव ! आपकी जीत हो ! और सर्व आदरपूर्वक देव यक्ष और राक्षसों द्वारा वन्दन किये जाते चरण कमल वाले, हे प्रभु! आप विजय बनें । जगत् चुड़ामणि श्री वीर प्रभु ने तीर्थ रूप में बतलाये हुए निर्मल छत्तीस गुणों की पंक्ति के आधारभूत, हे भगवंत ! मेरे ऊपर कृपा करो, और हे नाथ ! मुझे गृहस्थ और साधु की आराधना की विधि विस्तारपूर्वक भेद-प्रभेद दृष्टान्त और युक्ति सहित समझाओं ऐसा कहकर वह मुनि रुक गए। तब स्फुरायमान मणि समान
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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