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________________ ३८ श्री संवेगरंगशाला है, और मेरा मोह नष्ट हो गया है । इससे पूर्व के सदृश वर्तमान में भी भ्रमण दीक्षा को स्वीकार करूँगी । आज से स्वप्न तुल्य गृहवास से कोई प्रयोजन नहीं है । इस तरह रानी के कहने से राजा का उत्साह विशेष बढ़ गया और स्नान विधि करके स्फटिक समान उज्जवल वस्त्रों को धार करण कैद में बंद और बाँधे हुए अपराधी मनुष्यों को छोड़कर नगर में सर्वत्र अमारिपटह की उद्घोषणा कर श्री जैन मन्दिर में पूजा, सत्कार और नाटक महोत्सव करवा कर, कर माफ करके, धार्मिक मनुष्यों को सन्तोष देकर, सेवक वर्ग का सम्मान करके, याचकों मुँह माँगे दान देकर, उचित विनयादिपूर्वक प्रजावर्ग को समझाकर अनुमति प्राप्त कर हर्षपूर्वक उछलते शरीर के रोमांचित वाला हुआ राजा रानी के साथ में हजारों पुरुषों द्वारा उठाई हुई शिविका में वैठकर श्री जिनेश्वर भगवान के चरण कमल के पास में जाने के लिये चला, उस समय मकानों के शिखर पर चढ़कर नगर जन अत्यन्त अनिमेष नजर से उनका दर्शन कर रहे थे, और हृदय को सन्तोष देने में चतुर तथा सद्भूत यथार्थ महाअर्थ वाले श्रेष्ठ वाणी द्वारा अनेक मंगलमय पाठक उनकी स्तुति कर रहे थे । उसके बाद गंभीर दुंदुभि के अव्यक्त आवाज से सम्मिश्रित असंख्य शंखों के बजाने से प्रगट हुई आवाज द्वारा आकाश भी गूंज उठा, और प्रलयकाल के पवन से उछलते रवीर समुद्र के आवाज का ख्याल दिलाने वाला चार प्रकार के बाजों को सेवक बजाने लगे, तथा परम हर्ष के आवेश में निकलते आँसू के जल से भीगे हुए आँखों वाली, संक्षोभवश खिसक गये, कंदोरा आदि आभूषण के समूह वाली और मानव समूह को आनन्द देने में समर्थ वीरांगनाओं ने सर्व आदरपूर्वक अनेक प्रकार के अंगों को मरोड़कर व्याप्त श्रेष्ठ नृत्य किया । इस तरह परम वैभव के साथ समवसरण के स्थान पर आए राजा पालकी में से उतरकर प्रभु की तीन प्रदक्षिणा देकर स्तुति करने लगा किजन्म-मरण के भय को निवारण करने वाले, शिव सुखदाता, दुर्जय कामदेव को जीतने वाले, इन्द्रों द्वारा वंदनीय, और स्तुति कराने वाले, लोग समूह के पापों को नाश करने वाले हे श्रीवीर भगवान् ! आप विजयी रहें । इस तरह स्तुति कर ईशान कोने में जाकर रत्नों के अलंकार और पुष्पों के समूह को शरीर के ऊपर से उतारे और फिर प्रभु को इस प्रकार विनती की कि - " हे जगत् गुरु ! हे करुणानिधि ! प्रवज्या रूपी नौका का दान करके हे नाथ मुझको अब इस भव समुद्र से पार उतारो।” राजा ने जब ऐसा कहा तब तीन भवन में एक
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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