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________________ श्री संवेगरंगशाला ३७ प्राप्त कर मैंने हास्य से क्रोध से या लोभ से यदि तुमको दुःखी किया हो वह अब मुझे क्षमा करने योग्य है । आप मुझे क्षमा करना । फिर गनी कनकवती को उपदेश दिया कि - हे देवी! तू भी अब मोह प्रमाद को छोड़कर सर्व विरति का आचरण कर और संसारवास से मुक्ति हो । जहाँ निश्चय हमेशा विनाश करने वाला यमाराज पास में ही रहता है, उस संसार में स्वजन, धन और यौवन में राग करने का स्थान कौन-सा है ? संयम के लिये तैयार हुए राजा की वाणी रूप वज्र से दु:खी हुई रानी आँसू के प्रवाह से व्याकुल हुई इस प्रकार बोली- साधु जीवन तो वृद्धत्व में योग्य है, अब वर्तमान में संयम लेना कौन-सा प्रसंग है ? राजा ने कहा- बिजली के चमकार के समान चंचल जीवन में वृद्धत्व आयेगा या नहीं आयेगा उसको कौन जानता है ? देवी ने कहा- तुम्हारी सुन्दर शरीर की कान्ति दुःस्सह परीषहों को कैसे सहन करेगा ? राजा - हड्डी और चमड़ी से गूंथी हुई इस काया में क्या सुन्दरता है ? देवी - थोड़े दिन अपने घर में ही रहो, किसलिये इतने उत्सुक हो रहे हो ? राजा - श्रेय कार्य बहुत विघ्नों वाले होते हैं, इसलिए एक क्षण भी रोकना योग्य नहीं है। देवी - फिर भी अपने पुत्र की राजलक्ष्मी का श्रेष्ठ उत्सव तो देखो । राजा - संसार में अनन्त बार परिभ्रमण करते क्या नहीं देखा गया ? देवी - विशाल राजलक्ष्मी होने पर भी दुष्कर इस चरित्र से क्या लाभ है ? राजा - शरद ऋतु के बादल समान नाशवंत इस लक्ष्मी में तुझे क्यों विश्वास होता है ? देवी - पाँच इन्द्रियों के विषयभूत पाँच प्रकार का श्रेष्ठ विषयों को अकाल क्यों छोड़ते हो ? राजा - आखिर में दुःखी करने वाला उस विषयों का स्वरूप जानकर कौन उसका स्मरण करे ? देवी - तुम जब दीक्षा स्वीकार करोगे, तब स्वजन वर्ग चिरकाल विलाप करेगा तो, राजा - धर्म निरपेक्षये स्वजन वर्ग अपने-अपने स्वार्थ के लिये ही विलाप करते हैं । इस तरह दीक्षा विरुद्ध बोलती रानी को देखकर राजा बोला - हे महानुभाव ! इसमें तुझे राग क्यों होता है ? आज से तीसरे भव में मेरे वचन सुन कर सर्व संग का त्याग कर तुमने दीक्षा ली थी, वह क्यों भूल गई है ? तुम सौधर्म देवलोक में मेरी देवी रूप में उत्पन्न हुई थी और वर्तमानकाल में दृढ़ प्रेम बढ़ने से रागी बनी तू पुनः यहाँ भी मेरी पत्नी बनी है। ऐसा राजा ने जब कहा तब रानी पूर्व जन्म के वृत्तान्त को स्मरण करके दोनों हाथ जोड़कर बोली कि हे राजन् ! वृद्ध गाय समान विषयरूपी कीचड़ में फँसी हुई मुझे उपदेश रूपी रस्सी द्वारा खींचकर तुमने उद्धार कर बाहर निकाला है। अब मेरा विवेक रत्न प्रकट हुआ है मेरी घर निवास की इच्छा भी खतम हो गई
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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