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________________ श्री संवेगरंगशाला करने योग्य है । आत्महित की अभिलाषा वाले तू सदा परगुण को देखने वाला, गुणानुरागी बनना । हे पुत्र ! परगुण प्रति मात्सर्य, स्वगुण की प्रशंसा, अन्य को प्रार्थना करना, और अविनीत तत्व ये दोष महान् व्यक्ति को भी हल्का बना देता है। पर निन्दा का त्याग, स्वप्रशंसा सुनकर भी लज्जालु होना, संकट में भी प्रार्थना नहीं करना और सुविनीतमय जीवन वाला व्यक्ति छोटा भी हो वह महान् बन जाता है परगुण ग्रहण करना, पर की इच्छानुसार चलना, हितकर और मधुर वचन बोलना, तथा अति प्रसन्न स्वभाव यह बिना मूल और मन्त्र का वंशीकरण है । और हे पुत्र ! तुम्हें वैसा करना कि जिससे वृद्ध अवस्था में प्रथम मन को और फिर शरीर का स्पर्श करना, अर्थात् वृद्ध होने के पूर्व भोगादि में सन्तोष धारण करना तथा हे वत्स ! जिसने अति उन्माद यौवन को अपवाद बिना निर्दोष व्यतीत किया, उसने दोष भण्डार में भी इस जन्म में कौन-सा फल प्राप्त नहीं किया ? अर्थात् उसने पूर्णरूप में सब कुछ प्राप्त किया है। यह श्रेष्ठ स्वभाव वाला है, यह शास्त्र के परमार्थ को अच्छी तरह जानता है, यह क्षमावंत है और यह गुणी है इत्यादि किसी धन्य पुरुष की ही ऐसी घोषणा सर्वत्र फैलती है। तथा हे वत्स! गुणों के समूह को अपने जीवन में इस तरह स्थिर करना कि जिससे मुश्किल से दूर हो सके ऐसे दोषों का रहने का अवकाश ही न रहे। पथ्य और प्रमाणोपेत भोजन का तू ऐसा भोगी बनना कि वैद्य तेरी चिकित्सा न करे। केवल राज्य नीति के कारण उन्हें तू अपने पास रखना । अधिक क्या कहुँ ? हे पुत्र ! तू बहुत धर्म महोत्सव या आराधना करना, सुपात्र की परम्परा को हमेशा अपने पास रखना । अच्छे बाँस के समान और सरल प्रकृति को चिरकाल तक वर्तन करना । सौम्यता से प्रजा की आँखों को आनन्ददायी, कला का स्थान और प्रतिदिन गुणों से बढ़ते चन्द्र जैसे समुद्र की वृद्धि करता है वैसे तू प्रजाजन की वृद्धि करने वाला होना । प्रकृति से महान्, प्रकृति से दृढ़ धीरता वाला, प्रकृति से ही स्थिर स्वभाव वाला, प्रकृति से ही सुवर्ण रत्नमय निर्मल कान्ति वाला उत्तम वंश वाला, और पण्डितों का अनुकरण करने वाला हे पुत्र ! तू जगत में मेरू पर्वत के समान चिरकाल स्थिर प्रभुत्व को धारण करना । तथा गम्भीरता रूपी पानी से अलंकृत, गुणरूपी मणि का निधि, और अनेक नमस्कार के समूह को स्वीकार करते तू समुद्र के समान मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना । इसी तरह महासेन राजा विविध युक्तियों से पुत्र को शिक्षा देकर सामन्त, मन्त्री आदि को तथा नगर के लोगों को प्रेमपूर्वक कहता है कि इसके बाद अब यह तुम्हारा स्वामी है, चक्षुरूप है और आधार है, इसलिए मेरे समान इसकी आज्ञा में सदा प्रवृत्ति करना। और राज्य को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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