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________________ श्री संवेगरंगशाला ५२१ उस विराधना की भावना स्वरूप स्पष्ट है ही क्योंकि केंचुआ आदि मेंढक तक अर्थात् द्वीन्द्रिय लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव बड़े होने पर प्रथम शरीर रूप भी पृथ्वी को ग्रहण कर विराधना करता है, उसके बाद हमेशा कूदना, हिलना, चलना और बार-बार मर्दन करना उसका भक्षण आदि करने से वे जीव अन्य अपकाय में उत्पन्न हुए का नाश होता है, तथा खारा, कड़वा, तीखा आदि रस वाले तथा कर्कश स्पर्श वाले अपने द्वीन्द्रिय आदि शरीर से अवश्य तेज काय, वायु काय की विराधना होती है वनस्पति काय में भी अन्दर कीड़े रूप अथवा बाहर विविध रूप उत्पन्न होते द्वीन्द्रिय आदि जीवों द्वारा वनस्पति काय की भी विराधना होती है, इसलिए उनको क्षमा याचना करनी चाहिये । तथा द्वीन्द्रिय आदि अवस्था को प्राप्त कर तूने स्व-पर- उभय जाति के द्वीन्द्रिय आदि जीवों का यदि किसी का भी इस जन्म में या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा दूसरे द्वारा विराधना की हो उनको भी त्रिविध - त्रिविध क्षमा याचना कर क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना करने का समय है । पंचेन्द्रिय रूप में जलचर, स्थलचर और खेचर जाति प्राप्त कर तूने यदि किसी स्व, पर अभय जाति के जलचर, स्थलचर अथवा खेचर का ही परस्पर पीड़ा की हो और आहार के कारण से, भय से, आश्रय के लिए अथवा संतान की रक्षा आदि के लिए जिस मनुष्य की विराधना की हो उसकी भी तू त्रिविध क्षमा याचना कर । इस तरह तिर्यंच योनि में तिर्यंच और मनुष्यों की विराधना हुई हो उसकी क्षमा याचना कर अब मनुष्य जीवन में तूने तिर्यंच, मनुष्य और देवों की वह विराधना की हो उसकी क्षमा याचना कर । मनुष्य जीवन में सूक्ष्म या बादर यदि किसी जीवों की विराधना की हो उन सबकी भी क्षमा याचना कर, क्योंकि यह तेरा खिमत खामणा का समय है, हंसिया, हल से जमीन जोतने में कुएँ बावड़ी तालाब को खोदने में और घर दुकान बनाने आदि में स्वयं अथवा दूसरों द्वारा इस जन्म या अन्य जन्मों में पृथ्वीकाय जीवों की विराधना की हो, उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्हा कर | यह तेरा खिमत खामना का समय है । हाथ, पैर, मुख को धोने में अथवा मस्तक बिना शेष अर्द्ध स्नान, सम्पूर्ण स्नान तथा शौच करने में, पीने में, जल क्रीड़ा आदि करने में इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में स्वयं या दूसरों द्वारा यदि पानी रूपी जीवों की विराधना की हो उसकी भी अवश्य त्रिविधत्रिविध क्षमा याचना कर । क्योंकि अब तेरा क्षमा याचना का समय है । घी आदि का सिंचन करना, जलते हुए अग्नि को बुझाना, आहार पकाना, जलाना, डा देना, दीपक प्रगट करना और अन्य भी अग्निकाय के विविध आरम्भ
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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