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________________ ५२० श्री संवेगरंगशाला मुनि ! त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। मूल गुणों के अन्दर प्राणीवध आदि छोटे बड़े कोई भी अतिचार सेवन किया हो उन सब की भी सम्यग् गर्दा कर । और पिण्ड विशुद्ध आदि उत्तर गुणों में भी यदि छोटे बड़े अतिचार सेवन किए हों उसकी भी भाव पूर्वक गर्दाकर । मिथ्यात्व के ढके हुए शुद्धि बुद्धि वाला तूने धार्मिक लोगों की अवज्ञा रूप जो पाप आचरण किया हो उन सबकी गर्दा कर। और आहार, भय परिग्रह तथा मैथुन इन संज्ञाओं के वश चित्त वाले तूने यदि कोई भी पाप आचरण किया हो, उसको भी इस समय तू निन्दा कर । इस तरह गुरू महाराज क्षपक मुनि को दुष्कृत की गर्दा करवा पुनः दुष्कृत गर्दा के लिए इसी तरह यथा योग्य क्षमापना भो करावे-हे क्षपक मुनि ! चार गति में भ्रमण करते तूने यदि किसी भी जीवों को दुःखी किया हो उसको क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना का समय है। जैसे कि नारक जीवन में कर्म वश नरक में पड़े हुए अन्य जीवों को तुने भवधारणीय तथा उत्तर वैक्रिय रूप शरीर से बलात्कार पूर्वक यदि बहत कठोर दुःसह महा वेदना दी हो उन सबको तू क्षमा याचना कर । यह तेरा अब क्षमायाचना का समय है। तथा तिर्यंच जीवन में भ्रमण करते एकेन्द्रिय योनि प्राप्त कर तूने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्य पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों को अन्योन्य मिलन रूप शस्त्र से यदि किसी की कभी भी विराधना की हो उसकी भी क्षमायाचना कर ! तथा एकेन्द्रिय योनि से ही द्वीन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय तक के जीवों की जो कोई विराधना की हो उसे भी क्षमा याचना कर । उसमें पृथ्वीकाय शरीर से निश्चय द्वीन्द्रिय जीवों को तेरी पत्थर, लोहे द्वारा अथवा पृथ्वी शरीर के किसी भी विभाग का अवयव रूप में गिरने से विराधना हुई हो, अप्काय जलकाय के शरीर से उन जीवों का उसमें डुबोने से या बर्फ, ओले, वर्षाधारा तथा जल सिंचन आदि के द्वारा पीड़ा करने से, तेज-अग्निकाय भी बिजली रूप गिरने से, जलती अग्नि रूप गिरने से, वन के दावानल लगने से और दीपक आदि से द्वीन्द्रिय आदि जीवों करने से, वायु काय में भी निश्चय उन जीवों का शोषण, हनन, उड़ाना अथवा भगाना आदि से विराधना हुई हो, वनस्पति रूप में उनके ऊपर वृक्ष की डाली रूप गिरी हो और तू उनके प्रकृति से विरुद्ध जहर रूप वनस्पति में उत्पन्न हुई हो तब उसके भक्षण से उनकी नाश विराधना हुई हो, तथा द्वीन्द्रिय आदि योनि प्राप्त कर तूने एकेन्द्रिय आदि अन्य जीवों की विराधना की हो, इस तरह जो-जो विराधना की हो उन सबकी भी अवश्यमेव त्रिविध क्षमा याचना कर।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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