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________________ ४६८ श्री संवेगरंगशाला अशुचि से बना हुआ घड़े के समान शरीर भी अशुचि - अशुद्ध है । वह इस प्रकार से : गर्भावस्था का स्वरूप :- माता-पिता के संयोग से रुधिर और शुक्र के मिलन से जो मैला - अशुचि होता है, उसमें प्रारम्भ के अन्दर ही जीव की उत्पत्ति होती है । उसके बाद वह अशुचि सात दिन तक गर्भ का लपेटन रूप सूक्ष्म चमड़ी तैयार होती है, फिर सात दिन में सामान्य पेशी बनती है । उसके बाद एक महीने में घन रूप बनता है और वह दूसरे महीने में वजन में एक कर्ष न्यून एक पल अर्थात् साठ रत्ति जितना बनता है, तीसरे महीने में मांस की घन पेशी बनती है । चौथे महीने में माता को दोहता उत्पन्न करता है और उसके अंगों को पुष्ट करता है, पाँचवें महीने में मस्तक, हाथ, पैर के अस्पष्ट अंकुर प्रगट होते हैं, छठे महीने में रुधिर पित्त आदि धातु एकत्रित होते हैं, सातवें महीने में सात सौ छोटी नाड़ी और पांच सौ पेशी बनती हैं। आठवें महीने में नौ नाड़ी और सर्व अंग में साढ़े तीन करोड़ रोम उत्पन्न करता, फिर जीव पूर्ण प्रायः शरीर वाला बनता है, नौवें अथवा दसवें महीने में माता को और अपने पीड़ा करते करुण शब्द से रोते योनि रूपी छिद्र में से बाहर निकलता है, और अनुक्रम से बढ़ता है । उस शरीर में विशाल प्रमाण मूत्र और रुधिर तथा एक कुडव प्रमाण श्लेष्मा और पित्त हैं, आधा कुडव प्रमाण शुक्र और एक प्रस्थ प्रमाण मस्तक का रस होता है, आधा आढक चरणी एक प्रस्थ मल और बीभत्स मांस मज्जा से तथा हड्डी के अन्दर होने वाला रस से भरा हुआ, तीन सौ हड्डी तथा सब मिलाकर एक सौ साठ संधियाँ - हड्डियों के जोड़ होते हैं । मानव शरीर में नौ सौ स्नायु, सात सौ नाड़ी और पाँच सौ मांस की पेशियाँ होती हैं । इस तरह शुक्र, रुधिर आदि अशुचि पुद्गलों के समूह से बना अथवा नौ मास तक अशुचि में रहा हुआ और योनि से निकलने के बाद भी माता के स्तन का दूध से पालन-पोषण हुआ और स्वभाव से ही अत्यन्त अशुचिमय इस देह में किस तरह पवित्रता हो सकती है ? इस प्रकार के इस शरीर में सम्यग् देखते या चिन्तन करते केले के स्तम्भ समान बाहर अथवा अन्दर से श्रेष्ठता अल्पमात भी नहीं होती है । सर्पों में मणि, हाथियों में दांत और चमरी गाय में उसके बाल बाल-समूह चामर सारभूत दिखते हैं, परन्तु मनुष्य शरीर में कोई एक भी सार रूप नहीं है । गाय के गोबर, मूत्र में और दूध में तथा सिंह के चमड़े में पवित्रता दिखती है, किन्तु मनुष्य देह में कुछ भी पवित्रता नहीं दिखती । और
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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