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________________ ४६६ श्री संवेगरंगशाला वातिक, पैत्तिक और श्लेष्म जन्य रोग तथा भूख प्यास आदि दुःख जैसे जलती तेज अग्नि के ऊपर रखा पानी जलाता है वैसे वह नित्य शरीर को जलाते हैं । इस तरह अशुचि देह वाले भी, यौवन के मद से व्यामूढ़ बना 'अज्ञ पुरुष' अपने शरीर के सदृश अशुचिमय से बने हुए भी स्त्री शरीर में राग के कारण केश कलाप को मोर की पिंछ के समान, ललाट को भी अष्टमी के चन्द्र समान, नेत्रों को कमलनी के पंखड़ी के सदृश, होठों के पद्मराग मणि के साथ, गरदन को पाँच जन्य शंख के समान, स्तनों को सीने के कलश समान, भुजाओं को कमलिनी के नाल के समान, हथेली को नवपल्लव कोमल पत्तों के सदृश, नितम्बपट को सुवर्ण की शिला के साथ, जांघ को केले स्तम्भ के साथ और पैरों को लाल कमल के साथ उपमा देता है । परन्तु अनार्य - मूर्ख उसे अपने शरीर के सदृश अशुचि से बना है, विष्टा, मांस और रुधिर से पूर्ण और केवल चमड़ी से ढका हुआ है, ऐसा विचार नहीं करता है । मात्र सुगन्धी विलेपन, तंबोल, पुष्प और निर्मल रेशमी वस्त्रों से शोभित क्षण भर के लिए बाहर से शोभित होते स्त्री का अपवित्र शरीर को भी सुन्दर है इस तरह मानकर काम से मूढ़ मन वाला मनुष्य जैसे मांसाहारी राग से कटु हड्डी आदि से युक्त दुर्गंधमय मांस को भी खाता है, वैसे ही वह उस शरीर को भोगता है । तथा जैसे विष्टा से लिप्त बालक विष्टा में ही प्रेम करता है, वैसे स्वयं अपवित्र मूढ़ पुरुष स्त्री रूपी विष्टा में प्रेम करता है । दुर्गंधी रस और दुर्गंधी गन्ध वाली स्त्री के शरीर रूपी झोंपड़ी का भोग करने पर भी जो शौच का अभिमान करते हैं वे जगत हाँसी के पात्र बनते हैं । इस तरह शरीरगत इस अशुचि भावों का विचार करते अशुचि के प्रति घृणा करने वाला पुरुष स्त्री शरीर को भोगने की इच्छा किस तरह हो सकती है ? इन अशुचि भावों को अपने शरीर में सम्यग् घृणा रूप देखते पुरुष अपने शरीर में भी राग मुक्त बनता है, तो फिर अन्य के शरीर में क्या पूछना ? परशरीर में भी राग मुक्त बनता है । वृद्ध अथवा युवान भी वृद्धों के आचरणों से महान् बनता है और वृद्ध या युवान, युवान के समान उद्धत आचरण करने से हल्का बनता है । जैसे सरोवर में पत्थर गिरने से स्थिर कीचड़ को उछालता है, उसी तरह कामिनी के संग से प्रशान्त बना भी मोह को जागृत करता है । जैसे गन्दा मैला पानी भी कतक फल के योग से निर्मल बनता है, वैसे मोह से मलिन मन वाला भी जीव वैरागी की सेवा से निर्मल बनता है । जैसे युवान पुरुष भी वृद्ध की शिक्षा प्राप्त करने पर अकार्य में से तुरन्त लज्जा प्राप्त करता है, उससे रुकावट, शंका, गौरव का भय और धर्म की बुद्धि से वृद्ध के समान
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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