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________________ श्री संवेगरंगशाला ४६७ भी पुरुष के प्रति ऋजुता-सरलता नहीं होती है। सरलता के अभाव में उनमें विश्वास किस तरह हो सकता है ? और विश्वास बिना स्त्रियों में प्रीति कैसे हो सकती है ? पुरुष दो भुजाओं द्वारा तैर कर समुद्र को भी पार उतर जाते हैं, किन्तु माया रूपी जल से भरी हुई स्त्री समुद्र को पार करने को कोई शक्तिमान नहीं है । रत्न सहित परन्तु शेरनी युक्त गुफा के समान और शीतल जल वाली, परन्तु घड़ियाल वाली नदी के समान स्त्री मनुष्यों के मन को हरने वाली होने पर भी उद्वेग करने वाली है, अतः इसे धिक्कार है ! कुलिन स्त्री भी आँखों से देखा और सत्य भी कबूल नहीं करती है, अपने द्वारा कपट किया हो उसे भी गलत सिद्ध कर देती है। और पुरुष के प्रति घो के समान अपने पाप को छुपाकर रखती है। मनुष्य का स्त्री के समान दूसरा शत्रु नहीं है, इसलिये स्त्री को न+अरि =नारी कहते हैं। और पुरुष को सदा प्रमत्त-प्रमादी बनाती है, इसलिए स्त्री को प्रमदा कहते हैं । पुरुष को सैंकड़ों अनर्थों में जोड़ती है, इसलिए इसे विलया कहते हैं । तथा पुरुष को दुःख में जोड़ती है, इसलिए उसे युवति अथवा योषा कहते हैं। अबला इस कारण से कहते हैं कि उसके हृदय में धैर्य-बल नहीं होता है । इस तरह स्त्री के पर्याय वाचक नाम भी चिन्तन करने से असुखकारक होता है । स्त्री क्लेश का घर है, असत्य का आश्रम है, अविनयों का कुल घर (बाप दादों का घर) है, असन्तोषी अथवा खेद का स्थान है और झगड़े का मूल है तथा धर्म का महान् विघ्न है, अधर्म का निश्रित प्रादुर्भाव है, प्राण का भी सन्देह रूप और मान-अपमान का हेतु है, स्त्रियाँ पराभवों का अंकुर है, अपकीर्ति का कारण है, धन का सर्वनाश है, अनर्थों का समागम है, दुर्गति का मार्ग है और स्वर्ग तथा मोक्ष मार्ग की दृढ़ अर्गला रूप रुकावट है, एवं दोषों का आवास है, सर्व गुणों का प्रवास या देश निकाल है। चन्द्र भी गरम हो, सूर्य भी शीतल हो और आकाश भी स्थान रहित बन जाए, परन्तु कुलिन स्त्री भी दोष रहित भद्रिक सरल नहीं बनती है । इत्यादि स्त्री सम्बन्धी अनेक दोषों का चिन्तन करने वाला विवेकी का मन प्रायः स्त्रियों से विरागी बनता है। जैसे इस लोक में दोषों को जानकर विवेकी सिंह आदि का त्याग करते हैं, वैसे दोषों को जानकर स्त्रियों से भी दूर रहें। अधिक क्या कहें ? स्त्री कृत दोषों को इस ग्रन्थ में ही पूर्व में अनुशास्ति नामक द्वार के अन्दर सूरिजी ने कहा है जो वस्तु शुद्ध सामग्री से बनी हो, उसका तो मूल कारण शुद्ध होने से शुद्ध होती है, परन्तु अशुचि से बने हुए शरीर की शुद्धि किस तरह हो सकती है ? क्योंकि शरीर का उत्पत्ति कारण शुक्र और रुधिर है, ये दोनों अपवित्र हैं, इसलिए
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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