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________________ ४८० श्री संवेगरंगशाला जिसके प्रभाव से अग्नि भी शीतल हो जाती है और गंगा नदी उलटे मार्ग में बहने लगी है तो वह नमस्कार मन्त्र परमपद मोक्ष नगर में नहीं पहुँचाऐगा ? अवश्यमेव पहुँचायेगा। इसलिए आराधनापूर्वक एकाग्र चित्त वाला और विशुद्ध लेश्या वाला तू संसार का उच्छेद करने वाला नमस्कार मन्त्र जाप नहीं छोड़ना। मरणकाल में इस नमस्कार को अवश्य साधना चाहिए, क्योंकि श्री जिनेश्वर देव ने इसे संसार का उच्छेद करने में समर्थ देखा है। निविवाद कर्म का क्षय तथा अवश्य मंगल का आगमन ये श्री पन्च नमस्कार करने का सुन्दर तात्कालिक फल है। कालान्तर भाविफल है तो इस जन्म और अन्य जन्म का, इस तरह दो प्रकार का है, उसमें उभय जन्म में सुखकारी सम्यग् अर्थ-काम की प्राप्ति वह इस जन्म का फल है। उसमें भी उसके कलेश बिना प्राप्ति और आरोग्य पूर्वक उन दोनों को निर्विघ्न भोगने से इस जन्म में सुखकारक है और शास्त्रोक्त विधि से उत्तम स्थान में व्यय करने से परभव में सुखकारक होता है। श्री पन्च नमस्कार का अन्य जन्म सम्बन्धी भी फल कहा है। यदि उसी जन्म में ही किसी कारण से सिद्धि में गमन न हो, फिर भी एक वार भी नमस्कार मन्त्र को प्राप्त किया हुआ और निश्चय उसकी विराधना नहीं करने वाला, अतुल पुण्य से शोभित उत्तम देव तथा मनुष्य के अन्दर महान् उत्तम कुल में जन्म लेकर अन्त में सर्व कर्मों का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त ही करते हैं। तथा इस संसार में नमस्कार का प्रथम अक्षर 'न' भी वास्तविक प्राप्ति क्षण क्षण में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के अनन्त पुद्गलों की निर्जरा होने से होता है तो फिर शेष अक्षरों में भी प्रत्येक अक्षर से अनन्त गुणी विशुद्धि होने से होता है । इस तरह जिसका एक-एक अक्षर भी अत्यन्त कर्म क्षय होने से होता है, वह नमस्कार वांछित फल को देने वाला कैसे नहीं होता है। और जो पूर्व कहा है कि इस जन्म में अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। उसके मृतक के व्यतिकर से धन प्राप्त करने वाला श्रावक पुत्र का अर्थ विषय में दृष्टान्तभूत है । वह इस प्रकार : श्रावक पुत्र का दृष्टान्त एक बड़े नगर के अन्दर यौवन से उन्मत्त वेश्या और जूए का व्यसनी तथा प्रमाद से अत्यन्त घिरा हुआ एक श्रावक पुत्र रहता था। बहुत काल तक अनेक प्रकार से समझाने पर भी उसने धर्म को स्वीकार नहीं किया और निरंकूश हाथी के समान वह स्वछन्द विलास करता था। फिर भी मरते समय पिता ने करूणा से बुलाकर उसे कहा कि हे पुत्र ! यद्यपि तू अत्यन्त प्रमादी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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