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________________ श्री संवेगरंगशाला ४७६ कम होने से ऐसा करने में समर्थ न हो तो भी उनके नाम अनुसार 'अ-सि-आउ-सा' इन पाँच अक्षरों का सम्यग् रूप मौनपूर्वक भी जाप करना चाहिये । यदि ऐसा भी करने में किसी प्रकार का अशक्य हो तो 'ओम' इतना ही ध्यान करना चाहिये। इस 'ओम' द्वारा श्री अरिहंत, अशरीरी सिद्ध परमात्मा, आचार्य, उपाध्याय और सर्व मुनिवरों का समावेश हो जाता है। शब्द शास्त्र के जानकार वैयाकरणियों ने उनके नाम में प्रथम प्रथम अक्षरों की संधि करने से यह 'ओम' या ॐकार को बतलाया है। इसलिए ऐसे ध्यान से अवश्य श्री पंच परमेष्ठियों का ध्यान होता है अथवा जो निश्चल यह ध्यान को भी करने में समर्थ न हो तो उसके पास बैठे हुए कल्याण मित्र सामि बन्धुओं के समूह से बुलवाता श्री पंच नमस्कार मन्त्र को सुने और हृदय में इस प्रकार से भावों का चिन्तन करे कि-यह नमस्कार मन्त्र धन की गठरी है, वह निश्चय किसी दुर्लभ व्यक्ति को प्राप्त होता है, वह यह इष्ट संयोग हुआ है, और यही परम तत्व है। अहो ! अवश्य अब मैं इस नमस्कार मन्त्र की प्राप्ति से संसार समुद्र के किनारे पहुँचा नहीं तो कहाँ मैं होता ? अथवा कैसा इस तरह नमस्कार मन्त्र का सम्यग् योग हुआ है ? मैं धन्य हूँ कि -अनादि, अनन्त संसार समुद्र में अचित्य चिन्तामणी यह श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र को प्राप्त किया है। क्या आज मेरा सर्व अंगों में अमृतरूप बन गये हैं अथवा क्या किसी ने अकाल में भी मुझे सम्पूर्ण सुखमय बना दिया है। इस तरह परम समता रस की प्राप्ति पूर्वक सुना हुआ नमस्कार मन्त्र अमृत धारा के योग से जैसे जहर को नाश करता है, वैसे क्लिष्ट कर्मों का नाश करता है । जिसने मरण काल में इस नमस्कार मन्त्र का भावपूर्वक स्मरण करता है उसने सुख को आमंत्रण दिया है और दुःख को जलांजलि दी है। यह नवकार मन्त्र पिता, माता, निष्कारण बन्धु, मित्र और परमोपकारी है। यह नमस्कार सर्व श्रेयों का परम श्रेय, सर्व मंगलों का परम मंगल, सर्व पुण्यों का परम पूण्य और सर्व फलों का परम फल है तथा यह नमस्कार मन्त्र इस लोकरूपी घर में से परलोक के मार्ग में चलते हए जीव रूप मुसाफिरों का परम हितकर प्राथिय तुल्य है । जैसे-जैसे उसके श्रवण का रस मन में बढ़ता है वैसे-वैसे जल भरे कच्चे मिट्टी के घड़े के समान क्रमशः कर्म की गाढ़ क्षीण होती है। ज्ञानरूपी अश्व से युक्त श्री पंच नमस्कार रूप सारथि से प्रेरित तप-नियम और संयम का रथ में बैठने वाले मनुष्य को निर्वृत्ति मोक्ष नगर में पहुँचा देता है।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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