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________________ ४७८ श्री संवेगरंगशाला तुझे बार-बार इस विषय में प्रार्थना करता हैं कि-संसार समुद्र को पार उतरने का पुल समान नमस्कार मंत्र धारण करने में शिथिल नहीं होना। क्योंकि जन्म, जरा और मरण से भयंकर संसार रूपी अरण्य में इस नमस्कार मन्त्र को मन्द पुण्य वाले प्राप्त नहीं करते हैं। राधा वेध का भी स्पष्ट भेदन हो सकता है, पर्वत को भी मूल से उखेड़ सकते हैं और आकाश तल में चल सकते, उड़ सकते हैं, परन्तु महामन्त्र नमस्कार को प्राप्त करना दुर्लभ है। बुद्धिशाली को अन्य सब विषयों में भी शरणभूत होने से इस नमस्कार मन्त्र का स्मरण करना चाहिए और अन्तिम समय में आराधना के काल में तो सविशेष स्मरण करना चाहिए। यह नमस्कार मन्त्र आराधना में विजय ध्वज को ग्रहण करने के लिए हाथ है, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग है तथा दुर्गति के द्वार को बन्द करने के लिए अर्गला है। अन्य दिन में भी हमेशा इस नवकार मन्त्र को पढ़ना, गिनना, (जपना) और सुनना चाहिए तथा सम्यक् अनुप्रेक्षा करनी चाहिए तो फिर मृत्यु समय में पूछना ही क्या ? जब घर जलता है, तब उसका मालिक अन्य सब छोडकर आपत्ति का पार उतारने में समर्थ एक भी बड़ा कीमती रत्न को लेता है, अथवा जैसे युद्ध के भय में सुभट भृकुटी चढ़ाकर वैरी सुभट से रणभूमि में विजय प्राप्त करने में समर्थ एक अमोघ शस्त्र को ग्रहण करता है, वैसे जबरोगी में बारह प्रकार के सर्व श्रुतस्कंध (द्वादशांगी) का सम्यक् चिन्तन करने में एक चित्तवाले शक्ति वाला नहीं होता है तब उस द्वादशांगी को भी छोड़कर मृत्यु के समय में निश्चय ही वह श्री पंच नमस्कार का ही सम्यक् चिन्तन करते हैं, क्योंकि वह द्वादशांगी का रहस्यभूत है । सर्व द्वादशांगी परिणाम विशुद्ध का हो हेतुमात्र है, वह नमस्कार मन्त्र परिणाम विशुद्ध होने से नमस्कार मन्त्र द्वादशांगी का सारभूत कैसे नहीं हो सकता है ? अर्थात् द्वादशांगी का सारभूत नमस्कार है। इसलिए विशुद्ध शुभ लेश्या वाला आत्मा अपने को कृतार्थ मानता, उसमें ही स्थिर चित्त वाला बनकर उस नमस्कार मन्त्र को बार-बार सम्यक् स्मरण करता है। वैसे सुभट युद्ध में जय पताका की इच्छा करता है, वैसे अवश्य मृत्यु के समय मोह की जय पताका रूप कान को अमृत तुल्य नमस्कार को कौन बुद्धिमान स्वीकार न करे ? जैसे वायु के जल बादल को बिखेर देता है वैसे प्रकृष्ट भाव से परमेष्ठियों को एक बार भी नमस्कार करने से सारे दुःख के समूह को नाश करता है। संविज्ञ मन द्वारा, वचन द्वारा अस्खलित स्पष्ट मनोहर स्वरपूर्वक और काया से पद्मासन में बैठकर तथा हाथ की योग मुद्रा वाला आत्मा स्वयं सम्पूर्ण नमस्कारमंत्र को सम्यग् जाप करना चाहिए। यदि यह विधि उत्सर्ग विधि है फिर भी बल
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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