SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेग रंगशाला २३ से अथवा उसके वेदनीय कर्म के वश वह महात्मा अग्नि तुल्य दाहज्वर में पकड़ा गया । इससे अग्नि से तपी हुई लोहे की कढ़ाई में जैसे डाला हो वैसे वह लगातार उछने लगा, कांपने लगा, दोर्घ निसासा लेने लगा और विरस चिल्लाने लगा । इससे उसके पिता सर्व कार्य छोड़कर रोग की शान्ति के लिए विविध औषध के अनेक प्रयोग करने लगे । वह औषध नहीं वह मणि नहीं, वह विद्या नहीं और वह वैध नहीं कि उसके पिता ने उसकी शान्ति के लिए जिसका उपयोग नहीं किया हो । खाना, पीना, स्नान विलेपन आदि को छोड़कर शोक के भार से भारी आवाज वाले पास बैठे स्वजन रोने लगे । उसकी माता भी शोक के वश होकर अखंड झरते नेत्र के आँसु वाली, जिससे मानों दोनों आँखों गंगा सिन्धु नदी का प्रवाह बहता हो इस तरह रोने लगी । निष्कपट ऐसे प्रेम को धन्य है । भयानक वन के दावानल से जले हुए वृक्ष का ठूंठ के समान उनके स्नेहीजन भी निस्तेज बने खेद करने लगे । इस तरह उसके दुःख से नगर लोग भी दुःखी हुए और विविध प्रकार के सैंकड़ों देव, देवियों की मान्यता मानने लगे, फिर भो प्रतिक्षण दाहज्वर अधिकतर बढ़ता रहा और जीने की आशा रहित बनकर वैध समूह भी वापिस चला गया । तब उसने ऐसा चिन्तन किया कि - अहो ! थोड़े समय भी आपत्ति में पड़े जीव को इस संसार के अन्दर किसी तरह कोई भी सहायता नहीं कर सकता है। माना पिता सहित अतिवत्सल और स्नेही बन्धु वर्ग भी आपत्ति रूप कुए में गिरे हुए अपने सम्बन्धि को देखने पर भी किनारे के पास खड़े-खड़े शोक ही करते हैं, इस जीव का किसी से थोड़ा भी रक्षण नहीं हो सकता है । परन्तु वे लोग तो प्रसन्नता से रहते हैं, यह आश्चर्यभूत मोह की महान् महीमा है । इसलिए यदि किसी तरह भी मेरा यह दाहज्वर थोड़ा भी उपशम हो जाए तो स्वजन और धन का त्याग करके मैं जिन दीक्षा को स्वीकार करूँगा । उसके पश्चात् भाग्योदय से दिव्य औषधादि बिना भी जब, शुभ परिणामस्वरूप औषध से वह निरोगी तब स्वजनों को अनेक प्रकार से समझाकर श्री गुण सागर-सूरि जी के पास दीक्षित हुए, छड़, अट्ठम आदि दुष्कर तपश्चर्या में त्पर होकर वे विहार कर गये । इस तरह हे महाशय ! तुमने मेरी विसदृशता का जो कारण पूछा था, वह सारा जैसा बना था वह तुमें कह दिया । हुआ इस तरह बात सुनकर हे महसेन राजा ! तब तूने विचार किया कि - अनार्य कार्य में आसक्त मेरे पुरुष जीवन को धिक्कार हो, बुद्धि को भी धिक्कार हो, मेरे गुणरूपी पर्वत में वज्र गिरे, और मेरा शास्त्रार्थ में पारंगामीत्व भी पाताल में चले जाएं उत्तम कुल में जन्म मिलने से उत्पन्न हुआ अभिमान गुफा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy