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________________ २४ श्री संवेगरंगशाला में जाये और विचारी नीति भी दूसरे उत्तम पुरुष का आश्रय करे। क्योंकि कुत्ते के समान निर्लज्ज मैं श्रेष्ठ पुरुष के मस्तक मणि के समान उस पुरुष ने जिसका वमन किया हो, उस स्त्री को भोगना चाहता हूँ। वह धन्य ! कृतपुण्य है ! उसका ही मनुष्य जीवन सफल है, और उसने ही शरद के चन्द्र समान उज्जवल कीर्ति प्राप्त की है । वह एक कनक प्रभ ही निज कुल रूप आकाश का प्रकाशक चन्द्र है कि जिसने महामोहरूपी घोर शत्रु को लीलामात से चकनाचूर कर देते हैं । हे पापी हृदय ! इस प्रकार के पुरुषों के सच्चरित्र को सुनकर भी उत्तम मुनियों ने निषेध किए पर स्त्री के भोग में तुम्हें क्या आसक्ति है ? हे मन ! कदापि भी श्रेष्ठ लावण्य से पूर्ण सर्व अंगवाली, प्रकृति से सौभाग्य की भण्डार सर्व अंगों से मनोहर चेष्टा वाली, प्रकृति से ही शब्दादि पांचों इन्द्रियों के सुन्दर विषयों की पराकाष्टा को प्राप्त करने वाली, मनोहर सर्व अंगों पर श्रृंगार से प्रगट हुआ गौरव धारण करने वाली, कामदेव के निधान समान फिर भी पवन से हिलते पीपल के पत्ते समान चंचल चित्त वाली इन परस्त्रियों में और अपनी पत्नी में भी तू राग नहीं कर । और तू यहाँ का सुख तुच्छ मानता है, परन्तु परिणाम से मेरू पर्वत के समान महान् दुःख है वह भी जानता है ? यह स्नेह अस्थिर है वह जानता है ? और लक्ष्मी तुच्छ है, वह भी जानता है ? जीवन चंचल है वह जानता है और यह समस्त संयोग क्षण भंगुर है वह भी जानता है तो भी हे जीवात्मा ! अब भी तु गृहवास का क्यों नहीं त्याग करता ? इस तरह बहुत अधिक वैराग्य मार्ग में मन मुड़ने से तूने दोनों हाथ जोड़कर उस स्त्री को कहा कि हे सुतनु ! तुम मेरी माता हो, और तेरा पति वह मेरा पिता है कि जिसने चारित्र रूपी रस्सी से मुझे पाप रूपी आकार्य कुये में से बाहर निकाला है आज से सांसारिक कार्यों में मुझे वैराग्य हुआ है, हे महानुभाव ! तू भी अपने मार्ग के अनुसार दीक्षा स्वीकार कर । क्योंकिमहाप्रचंड वायु से वृक्ष के पत्ते समान आयुष्य चंचल है, लक्ष्मी अस्थिर है, यौवन बिजली समान चपल है, विषय विष समान दुःख जनक है । प्रियजन का संयोग वियोग से युक्त है, शरीर रोग से नाशवान् है और अति भयंकर जरा- वृद्धावस्था वैरिणी के समान प्रतिक्षण में आक्रमण कर रहा है । इस तरह उसे हित शिक्षा देकर उसके घर से निकल कर जिस मार्ग से आया तू शोघ्र निकल कर तेरे घर पहुँच गया । फिर वहाँ रहते हुए तू संसार के असारता को देखते विचार करता था, उस समय काल निवेदक ने यह एक गाथा (श्लोक) सुनाई : : जह किंपि कारणं पा. विऊण जायर खणं विरागमई । तह जर अपट्ठिया सा, हवेज्ज ता किं न पज्जतं ॥ ३२६ ॥
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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