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________________ २२ श्री संवेगरंगशाला कुमार बना, तब अल्पकाल में सारी कलाओं के समूह में कुशलता प्राप्त की और आकाश गामिनी आदि अनेक विद्याओं का भी तूने अभ्यास किया। उसके पश्चात मनुष्यों के नेत्रों को आनन्ददायी मनस्विनी स्त्रियों में मन रूपी कमल को विकसित करने में सूर्य समान सन्मान का पात्र रूप तरुण अवस्था प्राप्त होने पर तू कामदेव के समान शोभने लगा । फिर हाथी के जैसे समान वयवाले मित्रों से घिरा हुआ तू नगर में तीन-चार रास्ते वाले चौराहे में निःशंकता से घूमने लगा और प्रचुर वनों में और सरोवर में भी रमण करने लगा। ___ एक दिन तूने झरोखे में बैठे हेमप्रभ विद्याधर की सुर सुन्दरी नामक पुत्री को देखा । हे भाग्यशाली! उसका यौवन, लावण्य रूप, वैभव और मौभग्य ने तेरे हृदय को अति आकर्षण कर दिया। और तेरे दर्शन से विकसित नेत्र कमल वाली उसके चित्त में कुसुम युद्ध कामदेव पुष्प रूप शस्त्र वा ना होने पर भी वज्र के प्रहार के समान पीड़ित होने लगी, केव न पास में रही सखियों की लज्जा से विकार को मन में दबाकर उसने संघने के बहाने उसे नील कमल बतलाया। इस तरह उसने तुझे अंधकारी रात्री का संकेत किया, इससे हर्ष के आवेश से पूर्ण अंग वाला तू अपने घर गया। उसके बाद मित्रों को अपने-अपने घर भेजकर तू करने योग्य दिनकृत्यों को करके मध्य रात्री में केवल एक तलवार की सहायता वाला एकांकी अपने घर से निकला। कोई भी नहीं देखे इस तरह त चोर के समान धीरे से खिड़की द्वारा प्रवेश करके पलंग पर उसके पास बैठा 'दिन में देखा था वह प्रवर युवान है' ऐसा उसने जानकर हर्षित हुई उसने पति के समान तेरी सेवा की। उसके बाद परस्पर विलासी बातों की गोष्ठी में एक क्षण पूर्ण करके उसने कहा कि-हे सुतनु ! तेग यह स्वरूप विसदृश परस्पर विरुद्ध क्यों दिखता है ? शरीर को शोभा चन्द्र की ज्योत्सना की भी हंसी करे ऐसा सुन्दर क्यों है ? और तेरा यह वेणो बन्धन से बांधा हुआ केश कलार सर्प समान काला भयंकर क्यों दिख रहा है ? और तू लक्षणों से विद्यमान पति वाली दिखती है और तेरा शरीर पति संगम का सुख नहीं मिला हो ऐसा शुष्क क्यों दिखता है ? इसलिए हे सुननु ! इसका परमार्थ कहो ! क्या तूने पति को छोड़ दिया है ? अथवा अन्य में आसक्त होने से उसने ही तुझे छोड़ दिया है ? तब कुछ नेत्र कमल बंधकर उनको कहा कि : हे सुभग ! इस विसदृशता (परस्पर विरुद्धता) में रहस्य क्या है वह तू सुन ! यौवनारूढ़ हुई मेरा यहीं पर रहने वाले कनक प्रभ नामक विद्याधर पुत्र के साथ गाढ़ प्रेमपूर्वक विवाह हुआ। विवाह के बाद तुरन्त मेरे भाग्य के दोष
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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