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________________ ४०० श्री संवेगरंगशाला सती सुभद्रा की कथा चम्पा नगरी में बौद्ध धर्म का भक्त एक व्यापारी के पुत्र ने किसी समय जिनदत्त श्रावक की सुभद्रा नाम की पुत्री को देखा और उसके प्रति तीव्र राग वाला हुआ, उसके साथ विवाह करने की याचना की, परन्तु वह मिथ्या दृष्टि होने से पिता ने उसे नहीं दिया । फिर उससे विवाह करने के लिये उसने कपट से साधु के पास जैन धर्म को स्वीकार किया और बाद में वह धर्म उसे भावरूप में परिवर्तन हो गया । जिनदत्त श्रावक ने भी कपट रहित धर्म का रागी है, ऐसा निश्चय करके सुभद्रा को देकर विवाह किया और कहा कि - मेरी पुत्री को अलग घर में रखना, अन्यथा विपरीत धर्म वाले ससुर के घर में यह अपनी धर्म प्रवृत्ति किस तरह करेगी ? उसने वह कबूल किया और उसी तरह उसे अलग घर में रखी । वह हमेशा श्री जैन पूजा, मुनिदान आदि धर्म करती थी । परन्तु जैन धर्म के विरोधी होने से श्वसुर वर्ग उसके छिद्र देखते, निन्दा करने लगे। उसका पति भी 'यह लोक द्वेषी है' ऐसा मानकर उसके वचनों को मन में नहीं रखता था । इस तरह सद्धर्म में रक्त उन दोनों का काल व्यतीत होता था । एक दिन अपने शरीर की सार संभाल नहीं लेने वाले त्यागी एक महामुनि भिक्षार्थ ने उसके घर में प्रवेश किया । भिक्षा को देते सुभद्रा मुनि की आँख में तृणका गिरा हुआ था 'यह मुनि को पीड़ाकारी है' ऐसा जानकर सावधानीपूर्वक स्पर्श बिना जीभ से निकाल दिया, परन्तु उसे दूर करते उसके मस्तक का तिलक मुनि के मस्तक पर लग गया और वह ननद आदि ने उसे देखा । इससे लम्बे काल में निन्दा का निमित्त को प्राप्त कर उसने उसके पति को कहा कि - तेरी स्त्री का इस प्रकार निष्कलंक शील को देख ! अभी ही उससे भोग भोगकर इस मुनि को विदा कर दिया, यदि विश्वास न हो तो साधु के ललाट में लगा हुआ उसका तिलक देखो ! फिस उस तिलक को वैसा देखकर लज्जा को प्राप्त करते उसके रहस्य को जाने बिना उसका पूर्व स्नेह मन्द हो गया और उसके प्रति मन्द आदर करने वाला हुआ । फिर उसने ससुर के कुल में सर्वत्र भी उसके उस दोष को जाहिर किया और पति को अत्यन्त पराङमुख देखने से और लोगों से अपना शील को दोष रूपी मैल से मलिन जैन शासन निन्दा से युक्त जानकर अति शोक को धारण करती सुभद्रा ने श्री जैन परमात्मा की पूजा करके कहा कि - 'यदि कोई भी देव मुझे सहायता करेगा तभी इस काउस्सग्ग को पूर्ण करूँगी ।' ऐसा कहकर अत्यन्त सत्त्व वाली दृढ़ निश्चय वाली उसने काउस्सग्ग किया । उसके भाव से प्रसन्न हुये समकिती दृष्टि देव वहाँ आया । और कहा कि - हे भद्रे ! कहो कि
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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