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________________ श्री संवेगरंगशाला ४०१ तेरा जो करने का है वह 'मैं करूँ' फिर काउस्सग्ग को पार कर सुभद्रा ने इस प्रकार कहा कि हे देव ! दुष्ट लोगों ने गलत बातें फैलाई हैं, इससे शासन की निन्दा हो रही है, वह खत्म हो और शीघ्र शासन की महान प्रभावना हो, इस तरह कार्य करो। देवता ने वह बात स्वीकार करके उसे इस प्रकार कहा कि-कल नगर के दरवाजे मैं इस तरह मजबूत बन्द करूंगा कि उसे कोई भी खोल नहीं सकेगा और मैं आकाश में रहकर कहूंगा कि 'अत्यन्त शुद्ध शील वाली स्त्री छलनी में रखे जल से तीन बार छींटे देकर इन बन्द दरवाजों को खोलेगी, परन्तु अन्य स्त्री नहीं खोलेगी।' इससे उस कार्य को अनेक स्त्रियाँ साध्य नहीं कर सकेंगी, तब पूर्वोक्त विधि अनुसार तू लीला मात्र में उसे खोल देगी। इस तरह समझा कर उस समय वह देव अदृश्य हो गया और सुभद्रा ने भी कार्य सिद्ध हो जाने से परम सन्तोष को प्राप्त किया। जब प्रभात हुआ तब नगर के दरवाजे नहीं खुलने से नागरिक व्याकुल हुए और उस समय आकाश में वह वाणी प्रगट हुई, तब राजा, सेनापति की तथा उत्तम कुल में जन्मी हुई शील से शोभित स्त्रियाँ द्वार को खोलने के लिए आयीं, परन्तु छलनी में पानी नहीं टिकने से गर्व रहित हुईं और कार्य सिद्ध नहीं होने से वापस आई। इसे देखकर सारा लोग समूह अत्यन्त व्याकुल हुआ। फिर पुनः नगरी में सर्वत्र शीलवती स्त्री की विशेषतया खोज होने लगी। उस समय सासु आदि को विनयपूर्वक नमस्कार करके सुभद्रा ने कहा कि यदि आप आज्ञा दो, तो मैं भी नगर के द्वार को खोलने जाऊँ। इससे वे परस्पर गुप्त रूप में हँसने लगे और ईर्ष्या पूर्वक कहा कि-पुत्री ! स्वप्न में भी दोष नहीं करने वाली, तू ही अति प्रसिद्ध महासती है, इसलिए जल्दी जाओ और स्वयमेव अपनी निन्दा करवा, इसमें क्या अयोग्य है ? उसे इस तरह कहने पर भी सुभद्रा स्नान करके सफेद वस्त्रों को धारण कर छलनी में पानी भरकर, लोग से पूजित और भाट चारण आदि द्वारा स्तुति होती उसने नगर के तीन दरवाजे खोलकर कहा कि अब यह चौथा दरवाजा शील से मेरे समान जो होगी वह स्त्री फिर खोलेगी। इस तरह कहकर उसने उस दरवाजे को ऐसा ही छोड़ दिया। उस समय राजा आदि लोगों ने पूजा सत्कार किया और वह अपने घर गई। उसके बाद उसके ससुर वर्ग के लोगों ने मिथ्या निन्दाकारक मानकर उनकी बहत निन्दा की। इसलिए वस्तु स्वरूप जानकर, हे क्षपक मुनि ! श्रेष्ठ आराधना में एक तत्पर बन, परन्तु तू अनेक संकट का कारणभूत पर-निन्दा को मन से भी नहीं करना । इस तरह सौलहवाँ पाप
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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